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२७२ : सीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
के सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए भी यह माना गया है कि जीवात्मायें मृत्युलोक में उसी परमात्मा का आंशिक प्रकटन हैं ।"
हिन्दू धर्म में विशेषरूप से अद्वैत वेदान्त में अपने जागतिक अस्तित्व के पूर्व एवं निर्वाण पश्चात् सामान्य वैयक्तिक आत्मा की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । यद्यपि कुछ हिन्दू दर्शनों में प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार भी किया गया है, फिर भी उसे परमात्मा से भिन्न कोटि का एवं उसके सेवक के रूप में स्वीकार किया गया है । हिन्दू धर्म में जो यह कहा गया है कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा है या प्रत्येक आत्मा ब्रह्म है । जीव और ब्रह्म की समरूपता का सूचक नहीं है । जीव तो उसकी अभिव्यक्ति का एक अंश है और कथमपि उसके समकक्ष नहीं है । जबकि जैनधर्म में "अप्पा सो परमप्पा" की बात जो कही गई है उसका आशय कुछ भिन्न हो है । वहाँ प्रत्येक आत्मा अपनी क्षमता की दृष्टि से परमात्म स्वरूप ही है, दूसरे शब्दों में प्रत्येक आत्मा परमात्मा बीज है । जैनधर्मं यह मानता है कि प्रत्येक आत्मा अपना आध्यात्मिक विकास करते हुए परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । प्रत्येक आत्मा सत्ता की दृष्टि से परमात्मा है । अतः जहाँ हिन्दू धर्म में प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा की अभिव्यक्ति है वहीं जैनधर्म में प्रत्येक आत्मा स्वयं परमात्मा है । जैनधर्मं के अनुसार प्रत्येक मुक्त आत्मा परमात्मा है और वह स्वतन्त्र रूप से अपना अस्तित्व रखता है, इसी प्रकार जहाँ हिन्दू धर्म में एक परमात्मा है, वहाँ जैनधर्म में एक ही नहीं अपितु अनेक परमात्मा हैं । इस प्रकार दोनों अवधारणायें बाह्यतः समानतायें रखते हुए मूलतः भिन्न-भिन्न हैं । ९. अवतारवाद एवं तीर्थंकर की अवधारणा : व्यक्ति स्वतन्त्रता के सन्दर्भ
यद्यपि अवतार और तीर्थङ्कर दोनों को ही व्यक्ति की अपेक्षा श्रेष्ठ और उच्चतम माना गया है फिर भी दोनों के दर्शन में एक मूलभूत अन्तर यह भी है कि जहाँ अवतारवाद व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कुंठित करता है, वहाँ तीर्थङ्करत्व की अवधारणा व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कुंठित नहीं करती । अपितु वह कहती है कि तू अपने बन्धन के लिए स्वयं उत्तर
१. " ममैवांशो जीव लोके जीवभूतः सनातनः । मन. षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
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- गीता १५/७
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