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________________ तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार की अवधारणा : तुलनात्मक अध्ययन : २६७. इस प्रकार तीनों ही परम्पराओं में क्रमशः अवतार, तीर्थंकर और बुद्ध के संख्या के सन्दर्भ में विकास देखा जाता है । ८. तीर्थंकर और अवतार हिन्दू परम्परा में जो स्थान ईश्वर के अवतारों का है, वही स्थान जैन परम्परा में तीर्थङ्करों का है। फिर भी हमें स्पष्टतया समझ लेना होगा कि तीर्थङ्करों की अवधारणा और अवतारों की अवधारणा में अनेक समानताओं के होते हुए मूलभूत विभिन्नताएँ हैं । १. धर्म संस्थापक हिन्दू परम्परा में और विशेषरूप से गीता में ईश्वरीय अवतार को धर्म का संस्थापक कहा गया है।' इसी प्रकार जैनधर्म में भी तोर्थङ्कर को धर्मतीर्थ का संस्थापक कहा गया है। शक्रस्तव ( देविन्दथुई ) में तीर्थङ्कर को धर्म का आदि करने वाला, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाला, धर्म का दाता, धर्म का नेता और धर्म का सारथि कहा गया है। जैन आचार्यों ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि समय-समय पर धर्म की स्थापना के हेतु तीर्थङ्करों का जन्म होता रहता है। धर्म की संस्थापना का कार्य अवतार और तीर्थंकर दोनों ही समान रूप से करते हैं। यद्यपि यहाँ दोनों में एक महत्वपूर्ण अन्तर भी दिखाई देता है। जहाँ गीता में कृष्ण अपने को धर्म का संस्थापक कहते हैं, वहीं वे अपने को दुष्टों का दमन करने वाला भी कहते हैं, न केवल कृष्ण अपितु राम आदि सभी अवतारों के सन्दर्भो में धर्म की संस्थापना के साथ-साथ दुष्ट जनों का संहार और गो, ब्राह्मण आदि का संरक्षण भी आवश्यक मान लिया गया है। जबकि जैन परम्परा में तीर्थंकर मात्र धर्म का संस्थापक है, दुष्टों का विनाश एवं पराभव उसका कार्य नहीं है। हमें ऐसा लगता है कि जैनधर्म में तीर्थ कर के साथ दुर्जनों के १. गीता ४/५-९ १. "नमोत्थुण अरिहंताणं, भगवंताणं । आइगराणं, तित्थयराणं, सयंसुबुद्धाणं ॥ धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनाययाणं, धम्म-सारहीणं, धम्मवर-चाउरंत-चक्कवहीणं ॥" -सामायिक सूत्र-शक्रस्तक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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