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-२६८ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
बिनाश की बात इसलिए नहीं जोड़ी गई कि उसके अहिंसा के सिद्धान्त पर सम्भवतः खरोंच आती प्रतीत हुई होगी। उसे धर्ममार्ग का उपदेशक तो बताया किन्तु न तो उसे सज्जनों का संरक्षक, न दुर्जनों का विनाशक । सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का विनाश उसके निवृत्ति मार्ग के चौखटे में उपयुक्त नहीं थे अतः उसने तीर्थंकर को मात्र धर्म का संस्थापक माना, न कि दुष्टों का विनाशक और सज्जनों का रक्षक । लोक परित्रांत तीर्थंकरों के जीवन का लक्ष्य अवश्य रहा है मात्र सन्मार्ग के उपदेश के द्वारा न कि भक्तों के मंगल हेतु दुर्जनों का विनाश करना | तीर्थंकर धर्म का संस्थापक होते हुए भी सामाजिक दृष्टि से सक्रिय नहीं कहा जा सकता । अवतार की अवधारणा में जो सक्रियता हमें परिलक्षित होती है, वह सक्रियता तीर्थङ्कर की अवधारणा में नहीं है । वह सामाजिक दुर्घटनाओं का मूक दर्शक के रूप में ही धर्ममार्ग का उपदेशक है । अतः वह "परित्राणाय साधुनाम" की बात नहीं कहता ।
२. भक्तों का उपास्य
जिस प्रकार हिन्दू धर्म में अवतार उपास्य के रूप में पूजित हैं उसी प्रकार जैन धर्म में भी तीर्थंकर को उपास्य माना गया है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं
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" मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || अर्थात् तू मेरे में मन लगा, मुझे ही नमस्कार कर, मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा । आचारांग में यही बात " आणाय मामगम धम्मं " कहकर अपनी आज्ञा के पालन में ही धर्म की उद्घोषणा की गई है । जिस प्रकार गीता में श्रीकृष्ण भक्त के सभी पापों को नष्ट करने वाले कहे गये हैं, उसी प्रकार जैन परम्परा में तीर्थंकर को सभी पापों का नाश - करने वाला कहा गया है। एक गुजराती जैन कवि ने कहा है
"पाप पराल को पुंज वण्यो अतिमानो मेरु आकारो ।
तुम नाम हुतासन सेती, सहज ही प्रजलत सारो ।।"
अर्थात् पाप चाहे मेरु का आकार समूह ही क्यों न हो, प्रभु के नाम रूपी अग्नि से सहज ही विनष्ट हो जाता है ।
इस प्रकार दोनों ही परम्परायें उसे उपास्य के रूप में ग्रहण करती हैं और यह मानती हैं कि उसका नाम हमारे कोटि जन्मों के पापों का
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