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तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार को अवधारणा : तुलनात्मक अध्ययन : २६५
जहाँ सदेव तीर्थङ्कर एवं बुद्ध विद्यमान रहते हैं । बौद्धों का सुखावती और जैनों का महाविदेह क्षेत्र अपने वर्णन की दृष्टि से बहुत कुछ समानता रखता है । जिस प्रकार बौद्धों की यह कल्पना है कि सुखावती व्यूह में दुःख का लवलेश नहीं होता तथा सदैव बुद्ध का सान्निध्य उपलब्ध रहता है । उसी प्रकार जैनों की भी कल्पना है कि महाविदेह क्षेत्र में सदैव ही चतुर्थ आरा वर्तमान रहता है तथा सदैव तीर्थंकरों का सान्निध्य उपलब्ध रहता है ।
बुद्ध क्षेत्र के रूप में जो सुखावती व्यूह की कल्पना है या जैन में महाविदेह की कल्पना है उसी प्रकार हिन्दू परम्परा में विष्णु-लोक की कल्पना है । यद्यपि सुखावती व्यूह की महाविदेह की अपेक्षा विष्णु लोक से अधिक निकटता है यहाँ यह मान लिया गया है कि जो अमिताभ बुद्ध का भक्त होता है और उसका नाम लेता है वह सुखावती - व्यूह में जन्म लेता है । यह परम्परा ठीक वैसी है जैसे कि हिन्दू परम्परा में विष्णु का नाम लेने वाला विष्णु लोक में जन्म लेता है ।
६. पूर्व बुद्धों एवं पूर्व तीर्थंकरों की अवधारणा का
समसामयिक विकास
बुद्धों और तोर्थंकरों के सम्बन्ध में एक बात हमें जैन और बौद्ध दोनों में समान रूप से मिलती है कि जैन परम्परा में कल्पसूत्र और बौद्ध परम्परा में दीघनिकाय के महापदानसुत्त में पूर्व- तीर्थङ्करों एवं पूर्व बुद्धों का उल्लेख है । यद्यपि कल्पसूत्र में २४ तार्थंकरों का नामोल्लेख आ गया है फिर भी वहाँ मुख्यरूप से ४ तीर्थंकरों का ही जीवनवृत्त वर्णित है । महापदानसुत्त में भी केवल ७ मानुषी बुद्धों का उल्लेख मिलता है । दोनों ही परम्पराओं में तीर्थंकरों एवं बुद्धों के जीवन-वृत्त आदि दोनों की वर्णन शैली में बहुत कुछ समानता है। दोनों ही परम्पराओं में तीर्थंकरों एवं बुद्धों के वंश, माता-पिता, प्रमुख भिक्षु भिक्षुणियों के नाम, भिक्षु भिक्षुणियों की संख्या, प्रमुख उपासक - उपासिकाओं के नामों का ही उल्लेख मिलता है । इससे ऐसा लगता है कि दोनों ही परम्पराओं में पूर्व बुद्ध और पूर्व तीर्थंकरों की कल्पना का एक समसामयिक विकास हुआ है । इस प्रसंग में दोनों ही परम्पराओं में एक दूसरे का प्रभाव देखा जाता है ।
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