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२६४ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन ४. तीर्थंकर एवं बुद्ध के उद्देश्य की समानता __ यदि हम तीर्थङ्कर और बुद्ध के प्रयोजन या उद्देश्य की दृष्टि से विचार करें तो दोनों के उद्देश्य समान हैं। दोनों अपनी आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति के साथ-साथ लोक कल्याण के समान उद्देश्य को लेकर चलते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि तीर्थङ्कर का प्रवचन लोक पीड़ा को दूर करने के लिए ही होता है, इसी प्रकार बुद्ध का उद्देश्य भी प्राणियों के दुःख को दूर करना है । इस उद्देश्यगत समानता के साथ-साथ यह भी स्पष्ट है कि बद्ध और तीर्थंकर की यह लोक कल्याण को भावना निषेधात्मक या निष्क्रिय ही है क्योंकि वे मात्र मार्ग के प्रस्तोता हैं। जैन और बौद्ध दोनों ही परम्परायें इस बात को स्वीकार करके चलती हैं कि व्यक्ति का उत्थान और पतन एवं कल्याण या अकल्याण अपने प्रयत्नों से होता है, बुद्ध और तीर्थङ्कर तो मात्र उपदेशक हैं । इस दृष्टि से विचार करें तो अवतार की अवधारणा तीर्थङ्कर और बुद्ध की अवधारणा से थोड़ी भिन्न है क्योंकि अवतार केवल सन्मार्ग का उपदेश ही नहीं देता बल्कि अपने भक्त की पीड़ा को दूर करने के लिए तथा दुष्टों के विनाश के लिए सक्रिय कार्य करता है। बुद्ध
और महावीर जीवनपर्यन्त लोगों को सन्मार्ग का उपदेश देते रहे लेकिन वे राम और कृष्ण की तरह अत्याचारियों के दमन के लिए सक्रिय होकर सामने नहीं आए, क्योंकि यह बात उनके अहिंसावादी दर्शन और निवृत्तिमार्ग के ढांचे के अनुरूप नहीं थी, फिर भी इस सन्दर्भ में तीर्थङ्कर
और बोधिसत्व की अवधारणा में एक स्पष्ट अन्तर है। तीथङ्कर अपने पूर्व जीवन में भी मुख्यरूप से निवृत्तिमार्गी साधना को अपनाने के कारण सक्रिय होकर दुष्टों के या अत्याचारियों के दमन के लिए कार्य नहीं करता, यद्यपि जातक कथाओं से हमें यह ज्ञात होता है कि बोधिसत्व भी दुष्टों के या अत्याचारियों के दमन का कार्य तो नहीं करता, किन्तु जन-जन के सेवा का आदर्श और कृत्य है अतः उसे निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता। ५. महाविदेह, सुखावती एवं गोलोक को कल्पना
यद्यपि जैन एवं बौद्ध दोनों ने यह माना कि भरतक्षेत्र में अलग-अलग समय में एक काल-चक्र में २४ तीर्थङ्कर या २४ बुद्ध होते हैं किन्तु इसके साथ ही दोनों परम्पराओं में मनुष्य ने कुछ ऐसे क्षेत्रों को मान लिया है
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