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तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार को अवधारणा : तुलनात्मक अध्ययन : २५९
वह तीर्थंकर के रूप में जन्म लेती है और अन्त में अपनी साधना द्वारा मुक्ति को प्राप्त करती है । यद्यपि बौद्ध दर्शन भी यह मानता है कि बोधि-बीज रूप कोई चित्त सन्तति अपना आध्यात्मिक विकास करते हुए और विविध जन्मों में विविध पारमिताओं की साधना करते हुए बुद्धत्व की प्राप्ति करती है । फिर भी बौद्ध दर्शन की भाषा में यह कहना कठिन है कि जिस चित्त ने बोधिसत्व का उत्पाद किया वही चित्त परिनिर्वाण का लाभ करता है । पुनः जैन दर्शन में तीर्थंकर अपने परिनिर्वाण के बाद भी अपना अस्तित्व रखते हैं, वहाँ बौद्ध दर्शन में यह प्रश्न अव्याकृत करके ही छोड़ दिया है कि परिनिर्वाण के बाद बुद्ध का क्या होता है ।
यद्यपि बौद्ध धर्म में जो त्रिकायवाद का सिद्धान्त है उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि परिनिर्वाण के बाद बुद्ध का सम्भोगकाय समाप्त हो जाता है, फिर उनका धर्मकाय और स्वभावकाय अविशिष्ट रहता है यद्यपि यह प्रश्न भी उलझन भरा है कि धर्मकाय से उनका क्या तात्पर्य है । धर्मका से उनका तात्पर्य यदि उनके धर्म के अस्तित्व से है तो यह बात हमें किसी सीमा तक जैन धर्म में भी उपलब्ध हो जाती है जेन धर्म के अनुसार भी तीर्थंकर के परिनिर्वाण के बाद उनका धर्मसंघ बना रहता है, यद्यपि जैन धर्म में धर्मसंघ या धर्म देशना का अस्तित्व व्यक्ति के अस्तित्व से भिन्न है ।
(अ) तीर्थंकर एवं बुद्ध की अन्य समानता
के उच्चार-प्रस्राव ( मल-मूत्र ) का गन्ध अन्य गन्धों से परम्परा जैनपरम्परा में भी है, जहाँ यह माना गया है उच्चार-प्रस्राव एक विशिष्ट गन्धवाला होता है ।
१. कुछ अन्धक और उत्तरापथक बौद्धों की मान्यता है कि भगवान् विशिष्ट है ऐसी कि तीर्थंकरों का
२. कथावत्थु के १८वें वर्ग के अनुसार भगवान् बुद्ध ने एक शब्द भी नहीं कहा, यह मत या इस मत को मानने वाले बौद्ध-लोकोत्तरवादी कहलाते हैं । जैनों के दिगम्बर सम्प्रदायों की भी मान्यता थी कि तीर्थंकर कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् बोलता नहीं मात्र भाषा वर्गणा के पुद्गल विरते हैं जिससे एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि निःसृत होती है । समवशरण ( प्रवचन सभा) में उपस्थित सभी प्राणी अपनी-अपनी भाषा में उसका अर्थ ग्रहण कर लेते हैं ।
३. बौद्धों की मान्यता है कि चरम भविक ( अन्तिम जन्मवाला ) बोधिसत्व तुषित देवलोक से बुद्ध होने के लिए मनुष्य लोक में अवतीर्ण
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