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________________ तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार को अवधारणा तुलनात्मक अध्ययन : २५७ बुद्धों एवं तीर्थंकरों का दैवोकरण तथा इन परम्पराओं में विभिन्न देवीदेवताओं का प्रवेश यह सब हिन्दू परम्परा का ही इन पर प्रभाव है । यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं है कि जैन और बौद्ध श्रमण परम्परा का भागवत धर्म पर कोई प्रभाव न पड़ा हो । हिन्दू धर्म और विशेष रूप से भागवत धर्म में कर्मकाण्ड और यज्ञवाद का विरोध, अहिंसा एवं तप तथा त्याग की अवधारणाओं का विकास यह सब जैन और बौद्ध परम्पराओं का प्रभाव है। वस्तुत: भागवत धर्म, वैदिक और श्रमण धर्मों के समन्वय से ही विकसित हुआ है, जिसमें भक्ति की धारा और देववाद वैदिक परम्परा से तथा अहिंसा और साधना श्रमण परम्पराओं से आई है । वैष्णव धर्म में शूद्रों के प्रति जो थोड़ी-बहुत उदारता आई और उन्हें ईश्वर भक्ति का जो अधिकार मिला वह भी श्रमण परम्परा का प्रभाव है। जैन परम्परा के ऋषभदेव और बौद्ध परम्परा के बुद्ध का जो अवतारों की सूची में प्रवेश हुआ है, वह केवल इनकी लोकप्रियता और प्रभाव को लेकर ही हुआ है । वस्तुतः इसी बहाने जैन और बौद्ध परम्परा के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया गया । यद्यपि ऋषभदेव और बुद्ध सम्बन्धी भागवत के विवरणों के मूल में धर्म समभाव के स्थान पर साम्प्रदायिक दुराग्रह ही अधिक है, क्योंकि श्रीमद्भागवत में जहाँ ऋषभदेव और बुद्ध के जीवन-वृत्तों का उल्लेख है वहीं उनके तप त्याग प्रधान और प्रज्ञा प्रधान का स्वरूप प्रकट नहीं हुआ है, किन्तु उसके साथ यह कहकर कि ये अवतार मूलतः लोगों को वास्तविक धर्म से च्युत करने के लिये ही हुए हैं, इनकी छवि को धूमिल किया गया है । यह कार्य यद्यपि एकपक्षीय नहीं जैन और बौद्धों ने भी राम और कृष्ण को अपने महापुरुषों की श्रेणी में रखकर भी उन्हें तीर्थंकर या बुद्ध से निम्न स्तर का ही माना है । जेनकथा साहित्य में एक ओर कृष्ण को अरिष्टनेमि का उपासक बताया और उसे तीसरे नर्क तक भेज दिया, तो दूसरी ओर उसे वासुदेव और भावी तीर्थंकर के रूप में भी मान्य किया । जहाँ तक राम के जीवनवृत्त का प्रश्न है, जैन और बौद्ध परम्पराओं ने सदैव ही उसे सम्मान की दृष्टि से देखा है फिर भी इतना तो अवश्य है कि उन्हें तीर्थंकर अथवा बुद्ध का दर्जा नहीं दिया गया। जैन परम्परा ने हिन्दू परम्परा के चौबीस अवतारों में से कुछ को अपनी परम्परा में स्वीकृत कर लिया है। राम और कृष्ण को तो ८वें बलदेव और वें वासुदेव के रूप में जैन परम्परा में आत्मसात् किया ही गया है, साथ ही साथ है, १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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