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२५६ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन जिनमें अवतार, तीर्थंकर और बुद्ध के उल्लेख उपलब्ध होते हैं और उनके जीवन वृत्तों का वर्णन मिलता है इसी अवधि के बीच रचा गया । रामायण, महाभारत, हरिवंशपुराण और विष्णुपुराण का यही काल है और इसी प्रकार जेनपरम्परा के आचारांग के द्वितीय श्रुत्रस्कन्ध, कल्पसूत्र तथा समवायांग और भगवती के कुछ अंश जिसमें तीर्थकर सम्बन्धी अवधारणाओं का विवरण उपलब्ध होता है इसी काल की रचनायें हैं । बौद्ध परम्परा में दीघनिकाय, महायानसूत्र, लंकावतारसूत्र भी इसी काल की रचनायें हैं।
हिन्दू परम्परा में २४ अवतारों, बौद्धों में २४ बुद्धों तथा जैनपरम्परा में २४ तोथंकरों की अवधारणा का जो विकास हमें उपलब्ध होता है वह किस परम्परा ने किससे ग्रहण किया यह बता पाना तो अत्यन्त कठिन है किन्तु यह सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह सभी धारणायें लगभग साथ-साय विकसित हातो रहो हैं । यद्यपि सम्भावना यही अधिक है कि अवतारवादी अवधारणा के आधार पर ही विभिन्न कालक्रमों में जैनों में तीर्थंकरों के होने और बौद्ध परम्परा में बुद्धों के होने की अवधारणा का विकास हुआ है। ___ वस्तुतः हिन्दू परम्परा की अवतारवादी अवधारणा को ही जैनों ने तीर्थंकर के रूप, बौद्धों ने बुद्ध और बोधिसत्व के रूप में अपने-अपने दार्शनिक विचारों के आधार पर विकसित किया है। क्योंकि जैन और बौद्ध परम्परा के प्राचीनतम साहित्य में बुद्ध और महावीर का मानवीय रूप हो अधिक स्पष्ट होता है और जैन एवं बौद्ध साहित्य के गम्भीर और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में किया गया अध्ययन बहुत स्पष्टरूप से हमारे सामने यह स्पष्ट कर देता है कि उनमें तीर्थंकर और बद्ध की लोकोत्तरता की अवधारणा का प्रवेश कालक्रम में धीरे-धीरे हुआ है। जैन और बौद्ध धर्मो में भक्ति को अवधारणा का विकास भी परवर्ती ही प्रतीत होता है और यह मानने में भी हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए, इस सम्बन्ध में उन पर भागवत धर्म का प्रभाव है। इसी प्रकार तीर्थंकरों और बुद्धों तथा बोधिसत्वों के जीवन में जिन अलौकिक तत्त्वों का प्रवेश हुआ उस पर भी हमें भागवत धर्म के प्रभाव की सम्भावना है। क्योंकि जैन और बौद्ध दोनों हो धर्म मूलतः संन्यास-मार्गी और मानवतावादी रहे हैं। यह बात अलग है कि बौद्ध धर्म में प्रज्ञा को और जैन धर्म में तपस्या को अधिक महत्त्व दिया गया है किन्तु भक्ति की अवधारणा,
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