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________________ २५४ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन गोता में श्रीकृष्ण अर्जुन को सब कुछ समझाने के बाद अन्त में कहते हैं कि "यथेच्छसि तथा कुरु ॥१ जैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर । अर्जुन को दी गई यह स्वतन्त्रता सभी मनुष्यों के लिए है और इसी आधार पर उसे पुरुषार्थ को प्रेरणा भी दो गई है। डा० राधाकृष्णन् ने गोता की व्याख्या में मनुष्य पर नियति का कितना शासन है और उसमें कितनी स्वतन्त्रता है उसको स्पष्ट करने के लिए ताश के खेल का उदाहरण दिया है। वे कहते हैं कि पत्ते हमें बाँट दिए गए हैं यहाँ तक हम पर नियति का शासन है किन्तु जो पत्ते हमें मिले हैं उनके द्वारा खेल खेलने को हमें स्वतन्त्रता है, एक अच्छा खिलाड़ी खराब पत्तों द्वारा भो खेल को जोत को ओर ले जाता है तो एक अच्छे पत्ते पाने वाला खिलाड़ो खराब खेल के कारण जीतो हुई बाजी हार जाता है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि ईश्वरवाद व्यक्ति की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता को कुण्ठित नहीं करता अपितु व्यक्ति को सीमित स्वतन्त्रता देकर उसे पूर्ण स्वतन्त्रता की दिशा में स्वयं के पुरुषार्थ से बढ़ने की प्रेरणा देता है । ईश्वरीय कृपा भी पुरुषार्थ की विरोधी नहीं है। ईश्वरीय कृपा अकारण ही किसी व्यक्ति पर नहीं बँटती है। यह तो व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ होता है कि वह उस कृपा को अजित कर लेता है। ईश्वरीय कृपा को अर्जित करना, यही व्यक्ति का पुरुषार्थ है। अतः ईश्वरवाद या अवतारवाद न तो एकान्त रूप से नियतिवाद का समर्थक है और न पुरुषार्थवाद का ही विरोधी है। एक कहावत है कि ईश्वर उन्हीं को मदद करता है जो अपनी मदद करते हैं-अर्थात् जो स्वयं प्रयत्न करता है । "God helps those, who help themselves." १. गोता, १८/६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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