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-अवतार की अवधारणा : २५३:
गीता में अनेक स्थानों पर अर्जुन को यह समझाया गया है कि ईश्वरीय इच्छा, काल अथवा प्रकृति के कारण अवश्य हैं, उसे तो अपने को ईश्वरीय इच्छा का निमित्त मात्र बनकर कार्य करना है, किन्तु यदि व्यक्ति की अपनी कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं है और वह स्वतन्त्र रूप से कुछ भी नहीं कर सकता है, तो ऐसी स्थिति में हम उसे अपने शुभाशुभ कर्मों के लिए उत्तरदायी भी नहीं बना सकते हैं, परिणामस्वरूप कर्मसिद्धान्त और ईश्वरीय दंड व्यवस्था निरर्थक हो जाती है । यदि ईश्वर अपनी इच्छा स्वयं को शुभाशुभ कर्मों में नियोजित करता है तो व्यक्ति अपने शुभाशुभ के लिए उत्तरदायी कैसे हो सकता है । इस प्रकार ईश्वरवाद, नियतिवाद का पर्यायवाची बन जाता है । जैन और बौद्धों ने ईश्वरवाद पर नियतिवाद के आरोप लगाये हैं । यह निश्चित ही किसी सीमा तक सत्य है कि ईश्वरवाद में पुरुषार्थ का मूल्यांकन सम्यक् प्रकार से नहीं हो पाता है, क्योंकि पुरुषार्थ की अवधारणा स्वतन्त्र प्रकृति की क्षमता पर हो विकसित होती है।
पुनः अवतारवाद में ईश्वरीय कृपा को बहुत महत्त्व दिया जाता है । सामान्यतया यह माना जाता है कि ईश्वरीय कृपा से व्यक्ति के सभी काम सहज हो जाते हैं । यह बात भी सत्य है कि कृपा की अवधारणा में पुरुषार्थं का महत्त्व कम हो जाता है प्रभु की जिस पर कृपा हो जाती है वह अप्रयास ही सब कुछ पा लेता है। रामचरितमानस में भी कहा गया है कि
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" मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिवर गहन ।"
सूरदास
ने भी अपने पदों में ईश्वरीय कृपा के बारे में कहा है" जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अन्धे को सब कुछ दर्शायी ।”
इस प्रकार अवतारवाद में ईश्वर को नियामकता और ईश्वरीय कृपा ही ऐसे तत्त्व हैं जो पुरुषार्थ को अवधारणा को कुंठित करते हैं और व्यक्तिको भाग्यवादी या नियतिवादी बनाते हैं, किन्तु यह मानना कि अवतारवाद या ईश्वरवाद नियतिवाद का समर्थक है तथा पुरुषार्थ की अवधारणा को कुण्ठित करता है, समुचित नहीं है । यह सही है कि अवतारवाद में ईश्वर विश्व का नियामक और कृपालु है किन्तु उसकी नियामकता का यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य को कोई स्वतन्त्रता ही नहीं है, ईश्वर मनुष्य को सीमित स्वतन्त्रता प्रदान की है और वह अपनी इस सीमित स्वतन्त्रता का सम्यक् उपयोग करते हुए पूर्ण स्वतन्त्र भी हो सकता है ।
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