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________________ २४८ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ओर अवतारवाद में भक्ति का प्राधान्य रहा है तो दूसरी ओर विष्णु और उनके रामकृष्णादि उपास्य रूपों का भी प्रचलन रहा है । इस परिवर्तन के फलस्वरूप एक ओर विष्णु असुरों का संहार किया तो दूसरी ओर जय-विजय राक्षस विष्णु- पार्षद एवं द्वारपालों के अवतार माने गये । " भागवत" की एक कथा के अनुसार सनकादि के शाप के कारण उनका अवतार हुआ ।" इस प्रकार अवतार का मुख्य प्रयोजन असुरों का विनाश एवं धर्म की संस्थापना करना रहा है । २१. अवतार को धार्मिक एवं सामाजिक उपादेयता १. किसी व्यक्ति को ईश्वरीय अवतार अथवा ईश्वरीय अंश मानकर उसके उद्देश्यों एवं तार्किक सिद्धान्तों की प्रमाणिकता दी जा सकती है, क्योंकि ईश्वर का अवतार होने से उसके वचन प्रमाण होंगे । २. किसी व्यक्ति को ईश्वर का अवतार मानकर उसके प्रति धार्मिक आस्था को बलवती बनाया जा सकता है | ३. किसी सम्प्रदाय या धार्मिक परम्परा में धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को उसके आधार पर पुष्ट किया जा सकता है तथा मनुष्य को उसके प्रति अधिक श्रद्धालु बनाकर किसी धार्मिक सम्प्रदाय को जीवित या खड़ा किया जा सकता है । ४. किसी व्यक्ति के ईश्वरावतार होने पर उसके आसपास उपासकों एवं भक्तों का ऐसा समूह खड़ा हो जाता है, जो उन भक्तों में एक विशेष प्रकार की सामाजिक चेतना को जागृत करता है, उसके प्रति आस्थावान व्यक्ति आपस में एक दूसरे के प्रति भाई-चारे का व्यवहार करते हैं और इस प्रकार एक समाज सृजित होता है । ५. मनुष्य स्वभावतः जब भी कठिनाई, पीड़ा या अत्याचार का शिकार होता है तो किसी आश्रय या सहारे की खोज करता है और ईश्वर की ओर विशेष रूप से; ऐसी स्थिति में ईश्वर की अवधारणा उसे मनोवैज्ञानिक संबल प्रदान करती है । उसे यह विश्वास होता है कि कोई ऐसी शक्ति है जो उसके अथवा मानव समाज के उद्धार हेतु पृथ्वी पर अवतरित होगी । १. भागवत ३ / १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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