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अवतार को अवधारणा : २४९
२२. अवतार और लोक कल्याण
हिन्दू परम्परा, विशेष रूप से गीता में ईश्वरीय अवतार का प्रयोजन -लोक कल्याण माना गया है। गीता में इस लोक कल्याण की भावना को लोक संग्रह शब्द द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। गीता में श्रीकृष्ण स्वयं अपने अवतार का प्रयोजन बताते हुए वहते हैं कि "हे अर्जुन ! जब जब संसार में धर्म की हानि और अधर्म को वृद्धि होती है, तब-तब मैं अवतार ग्रहण करता हूँ, मैं साधु पुरुषों के उद्धार के लिए, दुष्ट जनों के विनाश के लिए, युग-युग में प्रकट होता रहता हूँ" उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अवतार का मूलभूत प्रयोजन सत् पुरुषों का कल्याण करना ही है, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना भी सज्जनों के कल्याण के लिए ही की जाती है। गीता के अनुसार लोक कल्याण के लिए कर्म करना बन्धन का कारण नहीं है । श्रीकृष्ण लोकहित के लिए अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं, हे पार्थ, मुझे तीनों -लोकों में कुछ भी करना शेष नहीं है किंचित् भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म करता रहता हूँ क्योंकि यदि में सावधान होकर कदाचित् कर्म न करू तो मेरा अनुसरण करके प्रजा भी मेरा अनु-सरण करेगी, अर्थात् निष्क्रिय हो जायेगी । यदि मैं कर्म न करूँ तो लोक की सारी व्यवस्था नष्ट हो जावेगी और मैं वर्णसंकर करने वाला तथा इस समस्त प्रजा का हनन करने वाला बनूंगा। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जिस प्रकार का आचरण करता है अन्य जन भी उसी का अनुसरण करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष द्वारा किया गया कार्य लोक में प्रमाणभूत होता है और दूसरे लोग उसका अनुवर्तन करते हैं । इस दृष्टि से बिना किसी आकांक्षा और अपेक्षा, लोकमंगल के लिए कर्म करना आवश्यक है । इसी
१. " यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥” - गीता, ३ / २१ २. " न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ " - वही, ३ / २२ ३. "यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ " - वही, ३ / २३ ४. "उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्या कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ " - वहो, ३ / २४
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