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२४० : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन १७. पौराणिक प्रतीक और विकासवादी उपादान
प्राकृतिक विज्ञानों के विकास और अवतारवादी विकासवाद में प्रमुख सम्य यह है कि दोनों में सूर्य से पृथ्वी का अवतरण और पृथ्वी पर जल-जोवों का आविर्भाव, जल-जीवों में जल पशु, जल-पशु से जल-स्थल उभय पशु, उभय पशु से सरोसप पशु-पक्षी, सरीसृप से पशु, पशु से पश-मानव, पशुमानव से मानव, मानव से मेधावो मानव के आविर्भाव का क्रम मिलता है। दोनों अध्ययन-पद्धतियों में अन्तर यह है कि प्राकृत विज्ञान वेत्ता एवं मानवशास्त्री जहाँ भूगर्भशास्त्र के द्वारा वस्तुनिष्ठ भौतिक पदार्थों या स्थूल शारीरिक पक्षों के विश्लेषण द्वारा सृष्टि या मानव सभ्यता का विकास निर्धारित करते हैं । वहां वैज्ञानिक दृष्टि से पौराणिक कथाओं के अध्ययन-कर्ताओं, विभिन्न युगों के अवतारों के प्रतिनिधि प्रतीकों के द्वारा अथवा उनकी शारीरिक संरचना और आत्मिक शक्तियों के आधार पर उनके विकास क्रम का निर्धारण करते हैं ।
प्राकृतिक विज्ञान से प्राणी- विज्ञान तथा प्राणी-विज्ञान से मानवविज्ञान या मानवशास्त्र का विकास हुआ है। प्राणी विकास के वैज्ञानिक अध्ययन का आधार वे फासिल्स (अस्थि कंकाल) हैं जो चट्टानों में दबे हुए मिलते हैं। इन्हीं अस्थि अवशेषों के अध्ययन से प्राणीय विकास के अध्ययन में सहायता मिलती है। इस प्रकार विकासवादो अध्ययन के लिए पाई गई पशुओं, बानरों, बनमानुषों और मनुष्यों को वे हड्डियाँ और खोपड़ियाँ हैं, जिनके आकार, प्रकार, कठोरता आदि के आधार पर वेज्ञानिकों ने प्राणियों का विकास क्रम निर्धारित किया है। आगे चलकर उनकी आदतों, कार्यों, स्वनिर्मित आयधों, संगठनों रीति-रिवाजों, धर्म, कला, एवं विज्ञान आदि के आधार पर विकास क्रम को जाना गया है। १८. अवतार-प्रतीक सन्धियुग के द्योतक
अवतारवादी परम्परा में जो प्रतीक हुए हैं, वे जीव युग के विशेष प्रतिनिधि होने की अपेक्षा दो या दो से अधिक भूगर्भीय युगों के सन्धिकाल के प्रतिनिधि अधिक दिखाई देते हैं। जिस प्रकार लघुरूप मत्स्य का बढ़ते-बढ़ते वृहदाकार "यक शृंगतनु" रूप होना दो भूगर्भीय सन्धिकाल का द्योतक प्रतीक होता है। इस वृहदाकार मत्स्य में मत्स्य पूर्व और मत्स्य युग दोनों की विशेषतायें विद्यमान हैं। इसी प्रकार कूर्म भी मत्स्य युग और सरीसृप युग के बीच का प्रतिनिधि प्रतीत होता है
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