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२३४ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन (२) प्रत्यक्ष अनुभूति
मानव में अपने संरक्षक ईश्वर के प्रति जब दृढ़ आस्था जागृत हो जाती है तो वह मानसिक धरातल पर उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति करता है, जैसा कि हम मीरा आदि अन्य रहस्यवादी सन्तों के जीवन में देखते हैं। चाहे इस प्रत्यक्ष अनुभूति को हम मनोविज्ञान की भाषा में Hellus ination ही कहें किन्तु वैयक्तिक अनुभूति के क्षेत्र में बहुत बड़ा महत्व होता है और इसके कारण व्यक्ति का जीवन और व्यक्तित्व ही बदल जाता है । (३) विश्वास को निश्चयता
जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि ईश्वर व्यक्ति की आस्था का केन्द्र होता है, व्यक्ति की ईश्वर के प्रति आस्था जैसे-जैसे सबल और दृढ़ होती जाती है उसमें एक विशेष प्रकार का विश्वास जागृत होता है । जागतिक दुःख और संकट के क्षणों में भी एक दृढ़ निश्चय का परिचय देता है। ___ मैकडूगल ने पाप की भावना को निषेधात्मक स्वानुभूति ( Negative self feeling ) कहा है।
मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने मन के सूक्ष्मतम स्तरों का विश्लेषण करते हुए धार्मिक ईश्वर ( The Religious God ) पर आदर्श-अहं (Super ego) की दृष्टि से विचार किया है। उपके अनुसार 'आदर्श अहं (Super ego)' वासनात्मक अहं (Id) में समाहित अनेक प्रबन्धों, वर्जनाओं
और पूर्व दमित इच्छाओं का ही एक रूप है। इस ‘आदर्श अहं ( Super ego)' का जन्म वासनात्मक अहं (Id) की प्रथम विषय-वस्तु ( Object cathexes ) अर्थात् ओडीपस ग्रन्थि से होता है । इस प्रकार मनुष्य का 'आदर्श-अहं' जिस वासनात्मक अहं (Id) से उत्पन्न होता है। उसमें व्यक्तिगत, सामूहिक और परम्परागत तीनों अहं-तत्व विद्यमान रहते हैं । मनोविज्ञान की दृष्टि से ईश्वर की अवधारणा वस्तुतः मनुष्य के 'आदर्शअहं' की ही देन है । यद्यपि फायड अपने मनोविज्ञान में ईश्वर की कोई युक्ति-संगत रूपरेखा प्रस्तुत नहीं कर सका।
अनेक पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने प्रायः मानसिक व्यापार के द्वारा
१. सा रे० पृ० ६७ २. The ego and the id, p. ६९
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