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________________ २३२ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन १३. अवतारवाद के मनोवैज्ञानिक आधार मनुष्य पुरातन काल से ही सृष्टि के मूल में एक अज्ञात शक्ति का दर्शन करता रहा है और उसे सृष्टि का मूलाधार मानता रहा है। वह सृष्टि के सृजन ( रचना) और संहार की प्रक्रिया को भी उसी अज्ञात शक्ति के द्वारा घटित मानता है, कालान्तर में यही अज्ञात शक्ति ईश्वर कही जाने लगी। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह दुःख, पीड़ा और अत्याचार के क्षणों में किसी उद्धारक की शरण में जाना चाहता है। वह आत्मसुरक्षा के लिए सबल शरण की खोज प्राणीय स्वभाव है, अपने से सबल की शरण की खोज की यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक कि एक ऐसी सबल सत्ता को नहीं खोज लिया जाता है, जिससे ऊपर अन्य कोई न हो और जिसे कोई भी पराजित नहीं कर सकता, मनुष्य ने यह माना कि ऐसो सबसे सबल शक्ति ईश्वर ही हो सकता है, अतः उसो की शरण ग्रहण करनी चाहिए । सबल के शरण की यह खोज ही अवतारवाद की अवधारणा का मनोवैज्ञानिक आधार है। मनुष्य यह मानने लगता है कि जब भी वह अत्यन्त दुःख, पीड़ा और अत्याचार के क्षणों में होगा उसका उद्धारक आकर उसकी रक्षा करेगा, अवतार को, जो दुष्टों का संहारक और सज्जनों का रक्षक कहा गया है, उसके पीछे मूलभूत भावना व्यक्ति के आत्म-संरक्षण को है मनुष्य ने जब अपने आपको आत्मसंरक्षण में अक्षम पाया तो उसने एक त्राता के रूप दैवीय शक्ति ईश्वर को खोज की और यह मान लिया कि वह देवीयशक्ति या सर्वशक्तिमान ईश्वर अपने भक्तों की पीड़ा को दूर करने के लिए उच्चतम लोक से मानव भूमि पर अवतरित होकर उसकी रक्षा करता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ईश्वर हमारी आस्था और भावना का केन्द्र होता है। वह मनुष्य को उसमें निहित भय को मूल प्रवृत्ति से छुटकारा दिलाकर साहस प्रदान करता है, ईश्वर के प्रत्यय का यही मनोवैज्ञानिक मूल्य है । अनुभव के क्षेत्र में हम यह पाते हैं कि संकट के क्षणों में अथवा भयावह स्थितियों में ईश्वर के प्रति व्यक्ति का यह अटूट विश्वास ही उसे उन कष्टों से उबार लेना है। मनुष्य के मन में एक ऐसा आत्म विश्वास जागृत हो जाता है कि वह इन कठिन परिस्थितियों से जरा भी नहीं घबराता है। जिस प्रकार एक बालक अपने माता-पिता की उपस्थिति का अनुभव कर साहस के साथ संघर्ष करता है, उसी प्रकार व्यक्ति भी ईश्वर के प्रति अपनी दृढ़ आस्था के कारण संकट के क्षणों में उसकी उपस्थिति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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