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________________ विषय प्रवेश : ७ आचार पद्धति प्रस्तुत करता है । वह धार्मिक और सामाजिक जीवन के नियमों और मर्यादाओं का संस्थापक भी होता है । प्रत्येक धर्म के अनुयायियों के लिए उनके धर्म - प्रवर्तक के वचन प्रमाण रूप होते हैं और वे यह मानते हैं कि धर्म-प्रवर्तक के उपदेश और आदेश के अनुसार जीवन व्यतीत करने में ही हमारा कल्याण है । इस प्रकार प्रत्येक धर्म के लिए तीन वस्तुएँ आवश्यक होती हैं-धर्म प्रवर्तक, धर्मं पुस्तक और धर्म संघ या समाज । धर्मपुस्तक के उपदेशक या रचयिता के रूप में तथा धर्मसंघ के आदर्श या नियामक के रूप में धर्मप्रवर्तक की आवश्यकता होती है । अतः धर्मप्रवर्तक वह केन्द्र है जिस पर किसी भी धर्म का वृत्त स्थित होता है । बिना धर्मप्रवर्तक के कोई भी धर्म अस्तित्व में ही नहीं आ सकता है । धर्मप्रवर्तक धर्म को अस्तित्व में लाने वाला, उसे जीवन देने वाला और उसका नियामक होता है । यही कारण है कि संसार के प्रत्येक धर्म में किसी न किसी रूप में धर्म प्रवर्तक को स्वीकार किया गया है। जैनों ने अपने धर्मप्रवर्तक के रूप में तीर्थंकर को स्वीकार किया तो बौद्धों ने बुद्ध को । जहाँ हिन्दू धर्म में अवतार को धर्मप्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया गया है, वहाँ ईसाई धर्म में ईश्वर के पुत्र को और इस्लाम में पैगम्बर को धर्मप्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया गया है । संकलित कर धार्मिक जैनों ने तीर्थंकर के इन धर्मप्रवर्तकों के उपदेशों को धर्मग्रन्थों में और सामाजिक जीवन का नियामक माना गया। वचनों का संकलन आगमों के रूप में किया, तो बौद्धों ने बुद्ध वचनों को त्रिपिटक में संकलित किया । इसी प्रकार हिन्दू धर्म में ऋषियों और अवतारों के वचनों को वेद, उपनिषद्, भगवद्गीता आदि अनेक ग्रन्थों में संकलित किया गया । यद्यपि हिन्दू धर्म में केवल मीमांसक एक ऐसा सम्प्रदाय है जो वेदों को उपदिष्ट नहीं मानता, वह उन्हें नित्य मानता है और इस प्रकार उसमें धर्म-शास्त्र को ही सर्वोपरि माना गया है । जब कि विश्व के अन्य सभी धर्मों में धर्मशास्त्र की प्रामाणिकता के लिए धर्मोपदेष्टा या धर्मप्रवर्तकों को ही प्राथमिकता दी गई । अतः हम यह कह सकते हैं कि धर्मप्रवर्तक के रूप में तीर्थंकर, बुद्ध या अवतार की अवधारणायें आवश्यक रही हैं । तीर्थंकर, बुद्ध या ईश्वर धार्मिक जीवन की साधना के चरम आदर्श हैं । प्रत्येक धर्म में धार्मिक जीवन का एक साध्य होता है, जिसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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