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अवतार की अवधारणा : २११
१०. राधास्वामी मत में दस अवतार की अवधारणा
राधास्वामी मतावलम्बियों ने भी दशावतार के बारे में लिखा है । राधास्वामी मत के अनुयायी बाबूजी महाराज ने कहा है कि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार पहले मच्छ, कच्छ और वाराह अवतार हुए। फिर नरसिंह अवतार हुआ। पहले तीन पशु रूप में थे । चौथा अवतार नर ओर पशु सन्धि का था और इसके बाद नर रूप में अवतार हुए । अन्त में श्रीकृष्ण महाराज ब्रह्म के पूर्ण अवतार हुए । ब्रह्म और ब्रह्माण्ड देश के अवतार जब खत्म हो चुके तब इस समय कलियुग में निर्मल चैतन्य देश के सन्त अवतार हुए ।
बाबूजी महाराज का कहना है कि पिण्ड ( शरीर ) में छ: चक्र हैं, ब्रह्माण्ड में छ: कमल हैं और दयाल देश ( निर्मल चैतन्य देश ) में छः पद्म हैं । दसों अवतार जो जगत् में आये ब्रह्म ही के अवतार थे, मगर पहले तीन अवतार मच्छ, कच्छ, वाराह पशुपत के थे और उनका ताल्लुक नीचे के तीन चक्रों से था जिसमें हैवानी ताकतों का जोर बहुत ज्यादा है । मच्छ अवतार गुदा चक्र का, कच्छ अवतार इन्द्रिय (जननेन्द्रिय) चक्र का, वाराह अवतार नाभि चक्र का शूकर रूप में था । हृदय चक्र पशु और नर का सन्धि स्थल है । हृदय चक्र पर सिमट कर आने से पशुओं की मृत्यु हो जाती है और अगर वहाँ बैठकर बहोश कार्यवाही (अप्रमत्तभाव से कर्म ) कर सके तो नर नर-श्रेणी में आ जाता है । नृसिंह यानी नर और पशु का अवतार हृदय चक्र का था । इसके बाद ऊपर के चक्रों और कमलों के अवतार आये और सबसे आखिर में श्रीकृष्ण महाराज ब्रह्म के पूर्ण अवतार हुए। सतयुग से लेकर द्वापर के अन्त तक पिण्ड देश और ब्रह्माण्ड देश के अवतार हो चुके, तब कलियुग ब्रह्माण्ड के ऊपर निर्मल चैतन्य देश और दयाल देश के सन्त अवतार होने का समय आया । इससे पहले सन्तों को अवतार लेकर आने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि जीवों का अधिकार नहीं था, उसी कायदे से जिससे कि सतयुग और त्रेतायुग में कृष्ण नहीं आ सकते थे ।
इस प्रकार राधास्वामी मत के अनुयायी भी ईश्वर के दस अवतारों में विश्वास करते हैं मात्र अन्तर यह है कि उन्होंने कलियुग में कल्कि अवतार की जगह सन्त अवतार की अवधारणा प्रस्तुत की है।
१. बचन बाबूजी महाराज - भाग १, पृ० ३५७, बचन ७४, ८.१२.४० २. वही, पृ० ३६९, बचन ७७, १२. १२.४०
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