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________________ विषय प्रवेश : ५ समर्थक बनी रही अतः वह आस्तिक कहलाई । जैन दर्शन आस्तिक दर्शनों के कर्मकाण्डीय पक्ष का एवं ईश्वरवाद का खण्डन करता है जबकि बौद्ध दर्शन आस्तिकों के कर्मकाण्ड और ईश्वरवाद के साथ-साथ आत्मवाद का भी खण्डन करता है । यद्यपि वैदिक परम्परा जैन और बौद्ध दोनों को नास्तिक कहती है, किन्तु वे अपने को नास्तिक नहीं मानते हैं । नास्तिकवाद के प्रवर्तक बृहस्पति ने कर्मकाण्ड और ईश्वरवाद के खण्डन के लिए जिन युक्तियों को प्रस्तुत किया है, ठीक उन्हीं युक्तियों को जेन और बौद्ध दार्शनिकों ने भी प्रस्तुत किया है । फिर भी कर्म सिद्धान्त और सदाचार के प्रति आस्थावान् होने के कारण वे अपने को नास्तिक नहीं मानते हैं । जैन और बौद्ध दार्शनिकों ने नास्तिकवाद की व्याख्या परलोक, धर्माधर्म और कर्तव्याकर्तव्य के विरोधी सिद्धान्त के रूप में की है । आस्तिक दर्शनों में परलोक, धर्म-आचरण और कर्तव्यों के सम्बन्ध में जो मान्यतायें प्राप्त होती हैं, उन्हीं मान्यताओं को प्रकारान्तर से जैन और बौद्ध दर्शनों ने भी अपनाया है । जैन और बौद्ध दर्शनों को नास्तिक कहने का एकमात्र कारण उनका वेदनिन्दक होना ही प्रतीत होता है, क्योंकि मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है - " नास्तिक्यं वेदनिन्दां ।" आस्तिक दर्शन वेदवाक्यों को प्रमाण मानते हैं, जबकि जैन, बौद्ध और बृहस्पति - तीनों ही वेदों को अप्रमाण मानते हैं, इसी कारण वे नास्तिक कहे गये हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन और बौद्ध दर्शन आस्तिक और नास्तिक विचारधाराओं के बीच के दर्शन प्रतीत होते हैं । ४. जैन और बौद्ध धर्मों की समानता जैन और बौद्ध दोनों दर्शन एक कूटस्थ - नित्य आत्मा के स्थान पर परिणामी चैतन्य को स्वीकार करते हैं, दोनों ही अहिंसा के पक्षपाती हैं और दोनों ही वेद वाक्यों को प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं । आत्मा और अन्य द्रव्यों की सत्ता के प्रश्न को छोड़कर दोनों में बहुत कुछ समानता है । व्यवहार और नीति की दृष्टि से जैन दर्शन में जहाँ सम्यक्ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक् चारित्र को मोक्ष का साधन कहा गया है, वहीं बौद्ध दर्शन में प्रज्ञा, शील और समाधि को निर्वाण का साधन बताया गया है। गीता में भी ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और कर्ममार्ग का १. मनुस्मृति ४।१६३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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