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४ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
२. घमणधारा का उद्भव
परम्परागत वैदिक धर्म की सहजता को जब स्वार्थी पुरोहित वर्ग ने जटिल और संकीर्ण बना दिया तथा कठोर वर्णव्यवस्था और कर्मकाण्ड ने उसकी सर्वजनग्राह्यता को नष्ट कर दिया, तब उसके विरोध में जिन प्रगतिशील चिन्तकों ने आवाज उठायी, वे ही श्रमण धारा के प्रतिनिधि थे। इसी श्रमण परम्परा में आगे चलकर जैन और बौद्ध धर्मों का विकास हुआ । दार्शनिक मतभेद के होते हुए भी दोनों के धार्मिक एवं नैतिक दृष्टिकोण प्रायः समान ही प्रतीत होते हैं। कर्मकाण्ड और पुरोहितवाद का स्पष्ट विरोध न केवल जैन एवं बौद्ध धर्मों में अपितु उपनिषदों में भी दृष्टिगत होता है। वस्तुतः ई० पूर्व छठी शताब्दी में यह विरोध आलोचनात्मक भावना के रूप में समग्न भारतीय चिन्तन में प्रकट हुआ है। भारत में यह युग दार्शनिक चिन्तन के जागरण का युग था। वेदों और उपनिषदों की विचारधाराओं के साथ उस समय स्वतन्त्र चिन्तन को अनेक विचारधाराएं प्रचलित थीं। मानव-कल्याण एवं दुःख मुक्ति की समस्याओं को लेकर विभिन्न विचारक अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर रहे थे। इसी क्रम में जैन और बौद्ध तथा अन्यान्य धार्मिक सम्प्रदायों का जन्म हुआ। उपनिषद् एक ओर तो वैदिक धारा के समर्थक थे और दूसरी ओर वे ब्राह्मण-ग्रंथों की भोगवादी और कर्मकाण्डीय विचारधारा के कट्टर विरोधी भी थे । कर्मकाण्ड और यज्ञयाग का आलोचक एवं अध्यात्मवादी होने के कारण उपनिषदों का चिन्तन जैन-बौद्ध धर्मों के अधिक निकट प्रतीत होता है। यद्यपि उपनिषदों के ऋषि वेदनिन्दक नहीं हैं किन्तु वे वैदिक कर्मकाण्ड के पक्षपाती भी नहीं कहे जा सकते हैं। वेदों के समर्थन के साथ-साथ उन्होंने वैदिक कर्मकाण्ड का विरोध किया, अतः वे आस्तिक माने जाते रहे, जबकि जैनों और बौद्धों ने खुलकर वेदों और वैदिक कर्मकाण्ड की आलोचना की अतः वे नास्तिक कहलाये। ३. आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन ___ जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महावीर और बुद्ध ने चार्वाकों के समान हो वैदिक कर्मकाण्ड का विरोध तो किया, यद्यपि उन्होंने उनकी भोगवादी नीति का समर्थन नहीं किया। फिर भी उन्हें चार्वाकों के साथ नास्तिक को कोटि में ही रखा गया। औपनिषदिक धारा ने भी अध्यात्मवाद का समर्थन और भौतिकवाद का विरोध किया है किन्तु वह वेदों की
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