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विषय प्रवेश : ३
क्योंकि जैविक आवश्यकता को पूर्ण सन्तुष्टि तो समाज जीवन में ही सम्भव थी, किन्तु विराग और त्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म समाज विमुख और वैयक्तिक बन गये । यद्यपि दैहिक मूल्यों की उपलब्धि हेतु कर्म आवश्यक थे । किन्तु जब मनुष्य ने देखा कि दैहिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए उसके वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद भी उनकी प्राप्ति या अप्राप्ति किन्हीं अलौकिक शक्तियों पर निर्भर है, तो वह देववादी या ईश्वरवादी बन गया । विश्व व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियन्त्रक तत्व के रूप में उसने विभिन्न देवताओं और ईश्वर की कल्पना की और उनकी कृपा को आकांक्षा करने लगा । इसके विपरीत निवर्तक धर्मं व्यवहार में नैष्कर्म्यता के समर्थक होते हुए भी कर्म सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानने लगे कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं उसके कारण है, अतः निवर्तक धर्म पुरुषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों पर आस्था रखने लगे । अनीश्वरवाद, पुरुषार्थवाद और कर्म सिद्धान्त उनके प्रमुख तत्त्व बन गए । साधना के क्षेत्र में जहाँ प्रवर्तक धर्म में अलौकिक दैवीय शक्तियों को प्रसन्नता के निमित्त कर्मकाण्ड और बाह्य विधि-विधानों (याग - यज्ञ) का विकास हुआ; वहीं निवर्तक धर्मों ने बाह्य कर्मकाण्ड को अनावश्यक मानकर चित्तशुद्धि और सदाचार पर अधिक बल दिया है ।"" वस्तुतः प्रवर्तक वैदिकधारा और निवर्तक श्रमणधारा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक और दार्शनिक प्रदेयों को अलग-अलग देखा जा सकता है किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि एक ही देश और परिवेश में रहकर वे दोनों एक दूसरे के प्रभाव से अछूती रही हैं । उनमें प्रत्येक ने एक दूसरे को प्रभावित किया है । यदि हम वैदिक धारा को एक "वाद" ( Thesis ) मानें तो श्रमणधारा को उसका "प्रतिवाद" (Anti- Thesis) कहा जा सकता है। जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्पराएँ वाद और प्रतिवाद के समन्वय ( Synthesis) की परिचायक हैं । यह Synthesis एक ही प्रकार का नहीं है । जहाँ जैन धारा में निवर्तक धर्मों के लक्षण अधिक रूप में जीवित एवं विकसित हुए, वहाँ बौद्ध धारा विशेषरूप से परवर्ती महायान बौद्ध धर्म ने निवृत्ति और प्रवृत्ति - दोनों में सन्तुलन बनाने का प्रयास किया जबकि वैदिक धारा से विकसित हिन्दू धर्म में निवर्तक परम्परा के अनेक तत्त्वों के प्रविष्ट होने के बावजूद प्रधानता प्रवर्तक धारा की रही है ।"
१. जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग - प्रास्ताविक पू० ९-१०
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