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________________ १९० : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन में चन्द्रमा हूँ। मैं अक्षरों में "अकार" तथा समासों में द्वन्द्व समास हूँ। मैं अक्षय काल हूँ, मैं सबको धारण करने वाला विश्वतोमुख हूँ। सबका हरण करने वाली मृत्यु भी मैं ही हूँ। मैं भविष्य के पदार्थों की उत्पत्तिस्थल हूँ, तथा स्त्रियों की कीर्ति, श्री, वाणी, स्मृति, बुद्धि, धैर्य और सहनशोलता हूँ" ।' ग्यारहवें अध्याय में विश्वरूप दिखलाकर भगवान् ने अर्जुन को अपनी विभूतियों और संसार का अपने ऊपर अवलम्बित होने का प्रत्यक्ष अनुभव करा दिया। इस प्रकार गीता के विराट् स्वरूप दर्शन में सांख्यों के प्रकृतिवाद, उपनिषदों के ब्रह्मवाद और भागवतों के ईश्वरवाद तीनों का समन्वय है। (घ) विष्णुपुराण ___ विष्णुपुराण में कहा गया है कि विष्णु के अवतारी रूप की इन्द्र एवं देवगण उपासना करते हैं, उनके परम-तत्व रूप को कोई नहीं जानता है । इस प्रकार विष्णु के पर रूप से व्यक्त सभी अवतार पूज्य माने गये हैं। परब्रह्म विष्णु के स्वरूपगत भेद दृष्टि से पुरुष एवं प्रकृति' ये दो अभिव्यक्त रूप माने गये हैं। इस प्रकार सभी रूपों को धारणकर्ता ब्रह्म व्यक्त और अव्यक्त एवं समष्टि और व्यष्टि रूप है । यह सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी, सर्वशक्तिमान एवं समस्त ऐश्वर्य से युक्त है । परब्रह्म अकारण शरीर ग्रहण नहीं करते, अपितु धर्म की रक्षा के लिए शरीर ग्रहण करते हैं। विष्णु के पुरुष एवं प्रकृति रूपों को उनकी क्रीड़ा या लीला कहते हैं । ___ उपरोक्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि एक ओर तो परब्रह्म विष्णु धर्मार्थ प्रयोजन के निमित्त सत्वांश से प्रकट होते हैं । यह इनका परम्परा रूप विदित होता है । दूसरा इनका एक पुरुष-प्रकृति के रूप में अभिव्यक्त रूप है जिसके द्वारा निष्प्रयोजन लोला के निमित्त क्रीड़ा करते हैं। भागवत् में विष्णु के लीलावतार का ही सर्वाधिक विवरण मिलता है। १. गीता १०/२०-२१, ३४, ३८ २. विष्णुपुराण ५/७/६७ ३. वही, १/४/१७ ४. वही, १/२/२३ ५. वही, ५/१/५० ६. वही, १/२/१८ ७. वही, ५/१/२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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