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________________ अवतार को अवधारणा : १८९ प्रकृति में स्थित रहकर अपनी माया से उत्पन्न होता हूँ"।' यहाँ पर ईश्वर और मनुष्य के जन्म में पर्याप्त अन्तर दिखाई पड़ता है । मनुष्य को अपेक्षा ईश्वर अपने ईश्वर रूप में रहकर माया से उत्पन्न होता है, वह अपने अनेक जन्मों के बारे में जानता है जबकि मनुष्य नहीं । गीता में भी ईश्वर के अवतार का प्रयोजन या मुख्य उद्देश्य धर्म की स्थापना, साधुओं की रक्षा और दुष्टों का विनाश कहा गया है और उसके जन्म और कर्म दोनों को दिव्य या मनुष्येत्तर कहा गया है । भगवान् ही संसार की सब वस्तुओं का एकमात्र अवलम्बन है। उनमें सब कुछ पिरोया हुआ है-"मयि सर्वमिदं प्रोतम् ।" उन्हीं में सब कुछ प्रवर्तित होता है-"मत्तः सर्वम् प्रवर्तते।" गीता के विभिन्न अध्यायों में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं अपनी विभूतियों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-मैं "पृथ्वी में गन्ध है, सूर्य तथा चन्द्रमा में प्रकाश हूँ, सब भूतों का जीवन हूँ और तपस्वियों का तप हूँ। मैं ही क्रतु हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, मैं स्वधा हूँ, मैं औषधियाँ हूँ, मन्त्र, घृत, अग्नि और हव्य पदार्थ मैं ही हूँ। संसार की गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवासस्थान, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, आधार और अविनाशी बीज मैं ही हूँ। मैं सब भूतों के भीतर स्थित हूँ मैं उनका आदि, अन्त और साध्य हूँ। आदित्यों में मैं विष्णु, ज्योतियों में सूर्य, मरुद्गणों में मरीचि और नक्षत्रों ---गीता ४/५ १. बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ॥ २. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।। ३. पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसो । जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु । ४. अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् । मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ।। गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । प्रभवः प्रलयः स्थानं निषानं बीजमव्ययम् ।। -वही ४/७-८ -गोता ७/९ . -वही९/१६ -वही ९/१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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