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१८८ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन शित कर' पापियों को दंड देने, सत्पुरुषों पर अनुग्रह करने तथा आक्रान्त पृथ्वी का भार हरण करने के लिए नाना प्रकार के अवतार ग्रहण करता है। महाभारत की मान्यता है कि धर्म की रक्षा एवं स्थापना के लिए ईश्वर विविध योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं। महाभारत में श्रीकृष्ण ने स्वयं को विष्णु. ब्रह्मा, इन्द्र, स्रष्टा एवं संहर्ता कहा है । वे ही युगयुग में विभिन्न योनियों में प्रकट होकर धर्म-सेतु का निर्माण करते हैं" एवं देव, गन्धर्व, नाग, यक्ष, राक्षस और मनुष्य योनि में जन्म लेकर उसी के अनुरूप व्यवस्था करते हैं। इस प्रकार महाभारत में विष्णु के अवतार का मुख्य प्रयोजन समय-समय पर आसुरी शक्तियों का विनाश, साधुजनों की रक्षा एवं धर्म को संस्थापना है । (ग) गीता ___ गीता के चतुर्थ अध्याय में अवतारवाद के तत्व मिलते हैं। गीता में पुनर्जन्म और साधारण जन्म से भिन्न ईश्वर की उत्पत्ति के वैशिष्ट्य को प्रतिपादित किया गया है। कृष्ण स्वयं अर्जुन से कहते हैं कि “मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं किन्तु मैं उनको जानता हूँ और तू उन्हें नहीं जानता। मैं अज, अव्ययात्मा और भूतों का ईश्वर होते हुए भी अपनी
१. यां यामिच्छेत्तनु देवः कर्तुं कार्यविधीक्वचित् । ___तां तां कुर्याद्विकुर्वाणः स्वयामात्मानमात्मना ।।
-महाभारत, शान्तिपर्व ३४७/७९ २. तत्र न्याय्यमिदं कर्तुं भारावतरणं मया ।
अथनाना समुद्भूतैर्वसुधायां यथाक्रमम् ।। निग्रहेण च पापानां साधूनां प्रग्रहेण च । इयं तपस्विनी सत्या धारयिष्यति मेदिनी ।।
--वही, २४९/३३-३४ ३. बह्वीः संसारमाणो वै योनीर्वामि सत्तम् । धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च ॥
-~महाभारत आश्वमेधिकपर्व ५४/१३ . ४. तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव । अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रोऽथ प्रभवाप्ययः ।।
-वही ५४/१४ ५. धर्मस्य सेतु बध्नामि चलिते चलिते युगे ।
तास्ता योनीः प्रविश्याहं प्रजानां हितकाम्यया । -वही ५४/१६
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