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अवतार की अवधारणा : १८७
निषद् के तृतीय एवं चतुर्थ खण्ड को यक्षकथा में देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र एकेश्वरवादी ब्रह्म की तुलना में गौण विदित होते हैं किन्तु महाभारत काल तक आते-आते देवाधिपति इन्द्र विष्णु की अपेक्षा भी गौण हो जाते हैं । महाभारत के श्रीकृष्ण विष्णु या नारायण के अवतार कहे गये हैं और जहाँ कहीं भी उनके अवतारत्व में सन्देह किया गया, वहाँ उन्होंने अपने विराट रूप का प्रदर्शन किया है।
महाभारत में विष्णु को श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेकर रणभूमि में दानवों और दैत्यों का संहार करते हुए प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार महाभारत में उनके अवतार का प्रयोजन दैत्यों का संहार है। द्रौपदी के कथनानुसार विष्णु (श्रीकृष्ण) इन्द्र को सर्वेश्वर पद प्रदान कर मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं, साथ ही इसी प्रसंग में इनके प्राचीनतम अवतार आदित्य रूप की चर्चा हुई है। जो अदिति के ऐश्वरमय कुण्डल के लिए नरकासुर का वध करते हैं । आदित्य अवतार से विष्णु की प्राचीन अवतार परम्परा का पता चलता है। इस प्रकार विष्णु के अवतार का मुख्य प्रयोजन इन्द्र और देवताओं की सहायता एवं उनके उत्थान के लिए असुरों का विनाश ही रहा है, क्योंकि महाभारत में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आपने सहस्रों बार अवतार धारण कर अधर्म में रुचि रखने वाले असुरों का वध किया है। उसके अनुसार परमात्मा जिस-जिस शरीर को धारण करना चाहता है उस-उस शरीर में अपनी आत्मा निवे.
१. कृत्वा तत्कर्म लोकानामृषभः सर्वलोकजित् ।
अवधीस्त्वं रणे सर्वान्समेतान्दैत्यदानवान् ॥ ततः सर्वेश्वरत्वं च संप्रदाय शचीपतेः । मानुषेषु महावाहोप्रादुर्भूतोषि केशव ॥
-महाभारत, वनपर्व १२/१८-१९ २. वही १२/२० ३. निहत्य नरकं भौममाहृत्यमणिकुण्डले । प्रथमोत्पादितं कृष्णमेध्यमश्वमवासृजः ।।
-वाही १२/१८. ४. पादुर्भवसहस्त्रेषु तेषु तेषु त्वया विभो । अधर्मरुचयः कृष्ण निहतः शतशो सुराः ।।
-वही १२/२८
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