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________________ १७२ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन शाश्वत है अपितु इन्हें परार्थ क्रियाकारित्व के उपायों के रूप में समझना चाहिए और यह परार्थ क्रियाकारित्व ही बुद्धत्व है। बुद्धत्व के नित्य होने का अर्थ इतना ही है कि परार्थ क्रिया सदैव-सदैव चलती रहती है । वह चित्त जिसने लोक मंगल का संकल्प ले रखा है, जब तक वह संकल्प पूर्ण नहीं होता है अपने इस संकल्प की क्रियान्विति के रूप में परार्थ क्रिया करता रहता है और वह संकल्प लेने वाला चित्त आपकी, हमारी या किसी की भी चित्त धारा की सन्तान हो सकता है। उसका यह संकल्प कि जब तक समस्त प्राणी निर्वाण लाभ न कर लें या दुःख से मुक्त नहीं हा जाते, तब तक लोक मंगल के लिए प्रयत्नशील रहूँगा, अपनी चित्त-सन्तति-धारा को प्रवाह रूप से बनाए भी रखता है। ___ इस प्रकार अनात्मवादी बौद्ध दर्शन में बुद्धत्व की यही अवधारणा अधिक समीचीन और तर्कसंगत हो सकती है कि हम बुद्ध को व्यक्ति न मानें, अपितु परार्थ क्रियाकारित्व की एक प्रक्रिया मानें। बुद्ध नित्य व्यक्तित्व नहीं अपितु प्रक्रिया हैं और जो बुद्ध के तीन या चार काय माने गये हैं वे इस प्रक्रिया के उपाय या साधन हैं। धर्मकाय की नित्यता को जो बात कही जातो है वह भी स्थितिगत नित्यता नहीं अपितु प्रक्रियागत नित्यता है । जिस प्रकार नदी का प्रवाह युगों-युगों तक चलता रहता है यद्यपि उसमें क्षण-क्षण परिवर्तनशीलता और नवीनता होती है, उसी प्रकार बुद्धत्व या बोधिमन्त्र भी एक चित्तधारा है, जो कायों अर्थात् उपायों के माध्यम से सदैव परार्थ में लगी रहती है। पुनः बुद्ध न तो निर्वाण में स्थित हैं और न संसार में । महायान में बुद्ध के दो प्रमुख लक्षण प्रज्ञा ओर करुणा कहे गये हैं। प्रज्ञा के कारण वे संसार में प्रतिष्ठित नहीं हैं और करुणा के कारण निर्वाण में प्रतिष्ठित नही हैं, अर्थात् करुणा उन्हें निर्वाण में प्रतिष्ठित नहीं होने देती और प्रज्ञा उन्हें संसार में प्रतिष्ठित नहीं होने देती। अतः वे दोनों में अप्रतिष्ठित होकर कार्य करते हैं। ___ महायान में जो अनन्त बुद्धों की कल्पना है वह कल्पना भी प्रक्रिया की कल्पना है क्योंकि यदि प्रक्रिया को सतत चलना है तो हमें अनन्त बुद्धों की अवधारणा को स्वीकार करना होगा, क्योंकि प्रत्येक चित्त से बोधिचित्त का उत्पाद हो सकता है और ऐसी स्थिति में बुद्ध एक नहीं अनन्त हो सकते हैं। प्रक्रिया के रूप में एकत्व हैं, प्रक्रिया के घटकों के रूप में अनेकत्व हैं । बुद्ध अनेक रूपों में प्रकट होते हैं इसका तात्पर्य यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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