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. बुद्धत्व को अवधारणा : १७३ नहीं है कि कोई एक व्यक्ति अनेक रूपों में प्रकट होता है, अपितु एक प्रक्रिया है जो अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती है। इसे हम लोक मंगलकारी चित्त धारा कह सकते हैं जो अनेक रूपों में अभिव्यक्त होकर अनेक प्रकारों से लोक-मंगल करती है। बद्ध के द्वारा अनेक सम्भोगकाय के धारण करने का मतलब ( अभिप्राय ) यह है कि बद्धत्व की प्रक्रिया या बोधि-चित्त-धारा के अनेकानेक चित्त-क्षण अनेकानेक कायों अर्थात् उपायों से लोक का हित साधन करते हैं।
पुनः जिस प्रकार पंचरात्र और वैष्णव दर्शन में विष्णु के व्यहों की कल्पना है उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में कायों की कल्पना है। जिस प्रकार विष्णु अपने व्यूहों के माध्यम से लोकमंगल करते हैं उसी प्रकार बुद्ध भी अपने कायों के माध्यम से लोकमंगल करते हैं। फिर भी जहाँ विष्णु और उसके व्यूहों में अंश-अंशी भाव है वहाँ बुद्ध और उनके कायों में ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है। काय तो बोधिचित्त के द्वारा किए जाने वाले परार्थ के उपाय या साधन मात्र हैं अस्तित्व नहीं । अवतारवाद की अवधारणा के मूल में आत्मवाद या किसी नित्य तत्त्व की अवधारणा रहती है, बौद्ध दर्शन के मूल में आत्मवाद ऐसा कोई नित्य तत्त्व नहीं है । यही दोनों का मूलभूत अन्तर है।
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