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________________ - बुद्धत्व को अवधारणा : १७१ कारण प्रबन्ध नित्यता है ।' प्रश्न यह होता है कि एकान्त रूप से क्षणिकवादी दर्शन में बुद्ध के त्रिकायों की तीन नित्यतायें कैसे सम्भव हो सकती हैं ? इनमें चाहे किसी भी रूप में नित्यता को स्वीकार किया जाये, निश्चित ही हमें क्षणिकवाद से पीछे हटना होगा । जब कोई आत्म-सत्ता ही नहीं है तो फिर बोधिसत्व कौन बनेगा और बुद्धत्व को कौन प्राप्त करेगा और कौन दस पारमिताओं की साधना करेगा ? यदि वह चित्त जिसने बोधि को प्राप्त किया, जिसने विभिन्न पारमिताओं की साधना की और जो अन्त में बद्धत्व को प्राप्त करता है, यदि किसी प्रकार के एकत्व से रहित है अर्थात् स्रोतापन्न होकर विभिन्न पारमिताओं की साधना करते हुए बुद्धत्व को प्राप्त करने वाला "वही" नहीं है तो फिर बुद्धत्व का सारा दर्शन चरमरा जायेगा। ___ मेरी दृष्टि में बौद्ध दर्शन की ओर से उपरोक्त असंगतियों का यदि कोई प्रत्युत्तर हो सकता है तो वह यहां होगा कि इन सबकी संगतिपूर्ण विवेचना चित्त संतति या चित्त धारा के रूप में की जा सकती है । फिर भी इस चित्त धारा में भी कोई एक ऐसा योजक सूत्र अवश्य मानना होगा जिसके आधार पर वे चित्तक्षण एक दूसरे से पृथक् होकर भो पृथक् नहीं रहते हैं। ___ उपयुक्त प्रश्नों को लेकर हमने बौद्ध धर्म और दर्शन के वरिष्ठ विद्वान् स्व. पं. जगन्नाथ जी उपाध्याय से चर्चा की थी, इस सम्बन्ध में उनके जो प्रत्युत्तर थे उन्हें हम अपने शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं। उनका कहना था कि बुद्ध के सम्बन्ध में जो त्रिकायों की अवधारणा है उसका अर्थ यह नहीं है कि कोई नित्य आत्मसत्ता है, जो कायों को धारण करती है। वस्तुतः ये काय परार्थ के उपाय या साधन माने गये हैं। जिस चित्त धारा से बोधिचित्त का उत्पाद होता है। वह बोधिचित्त इन कायों के माध्यम से परार्थ करता है, इसलिए बुद्धत्व कोई एक व्यक्ति नहीं है, अपितु एक प्रक्रिया है। जब हम धर्मकाय की नित्यता मानते हैं, तो वह व्यक्ति की नित्यता नहीं, प्रक्रिया की नित्यता है। धर्म को नित्यता मार्ग नित्यता है । धर्मकाय नित्य है इसका तात्पर्य है कि धर्म या परिनिर्वाण के उपाय नित्य हैं । अतः इन कायों की अवधारणा को हमें न तो कोई नित्य आत्मा के रूप में समझना चाहिए और न ये किसी ऐसे तत्व के रूप में जो १. सूत्रालंकार, पृ० ४५ ४६ : द्रष्टव्य-बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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