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१७० : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन नित्य आत्म सत्ता को स्वीकार नहीं किया जाता तब तक हम यह कैसे कह सकते हैं कि कोई व्यक्ति बोधिसत्व हो सकता है, बुद्धत्व को प्राप्त हो सकता है ? यदि आत्मा नहीं है तो फिर बोधिचित्त का उत्पाद कौन प्राप्त करेगा? पुनः एक ओर बौद्ध दर्शन यह मानकर भी चलता है कि प्रत्येक सत्व बुद्ध-बीज है किन्तु यदि कोई नित्य अस्तित्व ही नहीं है तो फिर वह बुद्ध बीज कैसे होगा और कैसे वह बोधिसत्व होकर विभिन्न जन्मों में पारमिताओं को पार करता हुआ बुद्धत्व को प्राप्त करेगा? महासांघिकों ने बुद्ध के रूपकाय को अमर और उनकी आयु को अनन्त माना है।' सद्धर्मपुण्डरीक.२ में भी यह कहा गया है कि बुद्ध की आयु अपरिमित है। यदि बुद्ध का रूपकाय अनन्त, अमर एवं अपरिमित है तो फिर क्षणिकवाद की अवधारणा कैसे सुसंगत सिद्ध होगी ? पुनः जब यह मान लिया जाता है कि बुद्ध निर्माणकाय के द्वारा नाना रूपों में प्रकट होकर लोक हित के लिए उपदेश करते हैं, तो फिर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न होता है कि किसी नित्य तत्व को माने बिना यह निर्माणकाय को रचना कौन करता है ! एक बार सामान्य व्यक्ति के सन्दर्भ में यह बात बोधगम्य हो सकती है कि वह क्षण-क्षण परिवर्तनशील है, किन्तु बद्ध की परिवर्तनशीलता किस आधार पर सिद्ध होगी? इस प्रकार हम देखते हैं कि अनात्मवादो और क्षणिकवादी दार्शनिक ढाँचे में बुद्धत्व और बोधिसत्व की अवधारणायें सुसंगत नहीं लगती हैं, यदि हम विशुद्धिमग्ग की भाषा में कहें कि क्रिया तो है कर्ता नहीं, मार्ग तो है चलने वाला नहीं, तो फिर मार्ग का उपदेशक कैसे हो सकता है ? वह कौन-सा सत्व या चित्त है जो बुद्धत्व को प्राप्त करता है और परम कारुणिक होकर जन-जन के कल्याण के लिए युग-युग तक प्रयत्नशील बना रहता है ? महायानसूत्रालंकार में यह भी कहा गया है कि बुद्ध के तीनों काय आशय, आश्रय और कर्म से निविशेष हैं, अतः तीनों कायों में तीन प्रकार की नित्यता समझनी चाहिए जिसके कारण तथागत नित्य कहलाते हैं। स्वाभाविककाय की स्वभाव से नित्य होने के कारण प्रकृति से नित्यता है साम्भौगिककाय का धर्म सम्भोग के अविच्छेद के कारण अप्रेसनतः (अच्युतितः) नित्यता है, नैर्माणिक को अन्तर्व्यय में पुनः-पुनः निर्मित द्रष्ट होने के .
१. उद्धत-बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० ३४९ २. सद्धर्मपुण्डरीक, पृ० २०६-२०७ : द्रष्टव्य-बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास,
पृ० ३५१।
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