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________________ · बुद्धत्व को अवधारणा : १६९ था कि मैं समाधिलाभ प्राप्त करके आत्म विहरण करूँ। किन्तु लोक की पीड़ा को जानकर हो वे धर्म-चक्र प्रवर्तन के लिए समुद्यत हए। उन्होंने अपने भिक्षुओं को भी यह उपदेश दिया कि हे भिक्षुओं, बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, लोक की अनुकम्पा के लिए, देव और मनुष्य के सुख और हित के लिए परिचारण करो।' किन्तु बुद्ध की यह करुणा साधक के लिए कृपा का वरदान लेकर आती है। क्या बुद्ध की कारुणिक दृष्टिमात्र से बिना पुरुषार्थ के दुःख विमुक्ति सम्भव है ? यहाँ हम देखते हैं कि प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में यह कल्याण-भावना ईश्वरीय कृपा का प्रतीक नहीं कही जा सकती, उसमें सत्वशुद्धि तो व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ का ही फल कही गई है। किन्तु धीरेधीरे बौद्ध धर्म में बुद्ध की यह करुणा कृपा का यह रूप लेने लगती है। सर्वप्रथम तो बौद्ध धर्म में यह मान लिया गया है कि व्यक्ति अपने कुशल या पुण्य का दान दूसरे के हित के लिए कर सकता है और इससे वे लोग लाभान्वित भी होते हैं। बोधिचर्यावतार में हम देखते है कि बोधिसत्व अपने शुभ क्रियाओं (कृत्यों) को प्राणियों के हित के लिए प्रस्तुत कर देता है और यह कामना करता है कि मेरे पुण्य के बल पर यह प्राणी दुःखों से मुक्त हो जावे । यदि बोधिसत्व या बुद्ध अपनी पुण्य परिणामना के द्वारा लोक मंगल कर सकते हैं तो हमें यह मानना होगा कि बौद्ध धर्म में किसी सीमा तक कृपा का प्रवेश हो गया है । १९. अनात्मवाद और बुद्धत्व को अवधारणा बुद्धत्व को अवधारणा में सबसे महत्वपूर्ण असंगति बौद्ध धर्म का अनात्मवाद का सिद्धान्त कहा जाता है । बुद्ध ने तृष्णा के समग्र उच्छेद के लिए अनात्मवाद का उपदेश दिया। यह बात प्रथम दृष्टि में ठीक तो लगती है, किन्तु आलोचकों का कथन है कि यदि बौद्ध दर्शन ईश्वर एवं आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करता तो फिर उसमें बद्धत्व और बोधिसत्व की अवधारणायें किस प्रकार से संगतिपूर्ण हो सकती हैं ? जब तक किसी १. "चरथ भिक्सवे चारिकं बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्याय हिताय सुखाय देवमनुस्सान" -महावग्ग, (१/१०/३२), पृ० २३ २. “यत्किञ्चिज्जगतो दुःखं तत्सर्व मयि पच्यतां । बोधिसत्वशुभैः सर्वेजगत् सखितमस्तु च ॥" -बोधिचर्यावतार १०/५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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