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१६८ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
१८. बौद्ध धर्म में कृपा और पुरुषार्थ
जब हम कृपा और पुरुषार्थ के प्रत्ययों की बात करते हैं तो हमारी मूल समस्या यह होती है कि मनुष्य के दुःख और पीड़ाएँ उसके अपने प्रयत्नों से दूर होती हैं या किसी देवी शक्ति की कृपा से ! सामान्यतया ईश्वरवादी दर्शनों में ईश्वरीय कृपा को ही दुःख विमुक्ति का एकमात्र आधार माना गया है, उनमें व्यक्ति के प्रयत्न या पुरुषार्थ का कोई स्थान हो सकता है तो मात्र इतना ही कि वह अपने को ईश्वरीय या देवी कृपा प्राप्त करने का पात्र बना सके । इसके विपरीत अनीश्वरवादी धर्मों में विशेष रूप से बौद्ध और जैन धर्म में ईश्वरीय कृपा को अस्वीकार ही किया गया है । प्रारम्भिक बोद्ध धर्म में हम स्पष्ट रूप से पुरुषार्थवाद का ही समर्थन पाते हैं । यद्यपि बौद्ध धर्म में बुद्ध, धर्म और संघ की शरण ग्रहण करने का विधान है किन्तु यह विधान किसी कृपा को प्राप्त करने के लिए नहीं है बल्कि साधन के क्षेत्र में मनोबल से आगे बढ़ने के लिए है । महापरिनिब्बानसुत्त में बुद्ध स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हे आनन्द, तुम अपनी शरण ग्रहण करो, आत्म-दीप होकर के विचरण करो ।' तथागत तो केवल मार्ग-दर्शन कराने वाले हैं, कार्य तो तुम्हें स्वयं करना होगा । बुद्ध यहाँ कोई ऐसा स्पष्ट आश्वासन नहीं देते है कि तुम मेरी शरण ग्रहण करो, मैं अपनी कृपा से तुम्हारे सब दुःख दूर कर दूंगा । बौद्ध धर्म के अनुसार सत्वशुद्धि का जो परिपाक होना है वह अपने स्वयं के प्रयत्नों से ही होना है, उसमें दूसरा कोई सहायक नहीं हो सकता । किन्तु यदि हम इस अवधारणा को स्वीकार कर लेते हैं तो फिर करुणा का क्या स्थान रहेगा ? प्रारम्भिक बौद्ध धर्म बुद्ध और तीर्थंकर को परम कारुणिक कहा गया है, वे करुणा के अवतार हैं । तीर्थंकर समस्त लोक की पीड़ा को जानकर धर्म का उपदेश देते हैं, उसी प्रकार बुद्ध भी प्राणियों के दुःख को दूर करने के लिए धर्म चक्र का प्रवर्तन करते हैं ।
बौद्ध धर्म में बुद्ध की और जैन धर्म में भी
बोधिलाभ करने के पश्चात् स्वयं बुद्ध के मन में भी यह विचार आया
१. " आनन्दा अत्त दीपा विहरण अत्तसरणा"
— दीघनिकाय, महापरिनिब्बानसुत, पू० १११
- धम्मपद २०/४
२. " तुम्हे हि किच्चं आतां अक्खातारा तथागता ।”
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