________________
बुद्धत्व को अवधारणा : १६७ को अलग रख और दूसरों के दुःख ( दूर करने ) में लग, दूसरों का सेवक बनकर इस काया में जो कुछ वस्तु देख, उससे दूसरों का हित कर ।"" फिर वह कहते हैं - ' दूसरे के दुःख से अपने सुख को बिना बदले बुद्धत्व की सिद्धि नहीं हो सकती, फिर संसार में सुख है ही कहाँ ? यदि एक के दुःख उठाने से बहुतों का दुःख चला जाय तो अपने और पराये पर कृपा करके वह दुःख उठाना ही चाहिए ।
बोधिचर्यावतार में निःस्वार्थ होकर कर्म करने की अवधारणा पर बल दिया गया है । जिस प्रकार कि शरीर के अवयव पैर में काँटा लगने पर हाथ उसको निकालकर दुःख दूर करता है जबकि हाथ को पैर का दुःख नहीं होता । उसी प्रकार सभी प्राणियों को दूसरों को दुःख से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि परोपकार करके हम अपने समाज रूपी शरीर की हो सन्तुष्टि करते हैं । "जिस प्रकार स्वयं को भोजन कराकर फल की आशा नहीं होती है उसी प्रकार परार्थ करके न गर्व हो सकती है, न विस्मय ।" "इसलिए एकमात्र परोपकार की अभिलाषा से परोपकार करके भी न गवं करना चाहिए और न विस्मय और न विपाक फल की इच्छा ही ।" ६
बोधिसत्वक लोककल्याणकारी अभिलाषा इतनी महान है कि उनके रोम-रोम से उच्चरित होता है कि संसार का कोई प्राणी दुःखी न हो, पापी न हो, रोगी न हो, हीन न हो, तिरस्कृत और जगत का जो दुःख है वह सब में भोग और मेरे सुखी हो । "
दुष्ट चित्त न हो । सब पुण्यों से जगत
यही लोक मंगल का उत्कृष्ट रूप है जहाँ दूसरे के हित के लिए अपने हित का भी त्याग कर दिया जाता है ।
१. बोधिचर्यावतार, ८ / १६१, १५९
२ . वही, ८ / १३२
३. वही, ८/१०५
४. वही, ८/९९
५. वही, ८ / ११६
६. वही, ८/१०९ ७. वही, १०/४५ ८. वही, १०/५६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org