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१६६ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
बौद्ध धर्म की महायान शाखा का साधक तो अपने निर्वाण सुख की भी उपेक्षा कर लोक कल्याण के आदर्श को श्रेष्ठ मानता है । वह कहता है कि दूसरे प्राणियों को दुःख मुक्त कराने में जो आनन्द मिलता है वही पर्याप्त है अपने लिए निर्वाण प्राप्त करना नीरस है, उससे हमें क्या लेना देना ।' लंकावतारसूत्र में बोधिसत्व यहाँ तक कहते हैं कि मैं तब तक परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं करूँगा जब तक विश्व के सभी प्राणी निर्वाण प्राप्त न कर लें । यहाँ पर साधक पर - दुःख - विमुक्ति से मिलने वाले आनन्द को स्व-निर्वाण के आनन्द से श्रेष्ठ समझकर अपने निर्वाण का त्याग कर देता है ।
आचार्य शान्तिदेव ने अपने ग्रन्थ शिक्षा - समुच्चय और बोधिचर्यावतार में बुद्ध की क-हितकारी दृष्टि का अनूठे ढंग से वर्णन किया है । बोधिचर्यावतार में बोधिसत्व लोक सेवा की भावना से अनुप्राणित होकर कहते हैं-" -" मैं व्याधि दूर होने तक रोगियों के लिए औषधि बनूँगा, वैद्य बनूँगा और परिचारक भी बनूँगा, अन्न-पान की वर्षा से भूख और प्यास से होने वाली व्यथा मिटाऊँगा तथा दुर्भिक्षान्तर कल्पों में भोजन-पान बनूंगा, दरिद्र प्राणियों के लिए अक्षय निधि बनूँगा और नाना प्रकार के उपकरणों से उनके सामने उपस्थित रहूँगा ।" आगे वह कहते हैं- " मैं अनाथों का नाथ, यात्रियों का सार्थवाह, पार जाने की इच्छा वालों के नाव, सेतु और बेड़ा बनूँगा । दीपक चाहने वालों के लिए दीपक, शय्या चाहने वालों के लिए शय्या, जिनके लिए दास की आवश्यकता है उनके लिये दास बनूँगा, इस प्रकार जगत के सभी प्राणियों की सेवा करूँगा । ,४ "जिस प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि आदि भौतिक वस्तुयें सम्पूर्ण आकाश ( विश्व मण्डल ) में बसे सभी प्राणियों के सुख का कारण होती हैं; उसी प्रकार आकाश के नीचे रहने वाले सभी प्राणियों का उपजीव्य बनकर तब तक रहना चाहता हूँ, जब तक सभी प्राणी मुक्ति प्राप्त न कर लें ।""
इस प्रकार व्यक्तिगत सुख की उपेक्षा कर दूसरे के दुःख को दूर करना ही बोधिसत्व का चरम लक्ष्य रहा है और वे कहते हैं कि - " अपने सुख १. बोधिचर्यावतार, ८1१०८
२. लंकावतारसूत्र, ६६ ६
३. बोधिचर्यावतार, ३ /७-९ ४. वही,
३/१७-८
५. वही, ३ /२०-२१
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