________________
१३६ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
राग ( इन्द्रियलिप्सा ) और प्रतिघ ( दूसरे के अनिष्ट की भावना ) अशुभ प्रवृत्तियों के क्षय का प्रयत्न अवश्य करता है परन्तु उसमें रागद्वेष एवं मोह रूपी आस्रव शेष रह जाते हैं । इनके क्षय करने का प्रयत्न ही सदागामी भूमि है । आस्रवों के विनष्ट होते ही साधक अनागामी भूमि में प्रविष्ट हो जाता है । ३. अनागामी भूमि
साधक पूर्व की दोनों भूमियों के अन्तर्गत सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा, शीलव्रत परामर्श, काम - राग और प्रतिघ- इन पाँचों संयोजनों को नष्ट कर देता है तब वह अनागामी भूमि को प्राप्त कर लेता है । इस अवस्था को प्राप्त कर लेने के पश्चात् यदि साधक आगे साधनात्म विकास नहीं करता है तो वह मरणोपरान्त ( मानवदेह का त्यागकरके ) ब्रह्मलोक में जन्म लेकर शेष पांच संयोजनों को नष्ट करके अन्त में उसी स्थान से सीधे निर्वाण को प्राप्त करता है ।
४. अर्हत्-भूमि या अर्हतावस्था
जब साधक सत्कय दृष्टि, विचिकित्सा, शीलव्रत - परामर्श, कामराग, प्रतिघ, रूपराग, अरूपराग, मान, औद्धत्य और अविद्या- इन दसों बन्धनों को नष्ट कर लेता है तो अर्हत् भूमि में प्रविष्ट होता है अर्थात् अर्हत् अवस्था को प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार सम्पूर्ण संयोजनों के समाप्त होने पर वह कृत कार्य हो जाता है अर्थात् उसे अपने लिए करने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता, तथापि वह संघ की सेवा के लिए क्रियाएँ करता है ।
(ब) बुद्धत्व की प्राप्ति के दस चरण (दस भूमियाँ)
संक्रमण काल की दस भूमियाँ - हीनयान से महायान की ओर संक्रमणकाल में लिखे गये ग्रन्थ महावस्तु में निम्न १० भूमियों का विवेचन किया गया है । १. दुरारोहा, २. बद्धमाना, ३. पुष्पमण्डिता, ४. रुचिरा, ५. चित्तविस्तरा ६. रूपवती, ७. दुर्जया, ८. जन्मनिदेश, ९. यौवराज्य, १०. अभिषेक |
महायान की दस भूमियों से यह भिन्न है, यद्यपि महायान की निम्नोक दस भूमियों का सिद्धान्त इसी मूलभूत धारणा पर आधारित
१. उद्धत - बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पू० ३५९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org