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. बुद्धत्व की अवधारणा : १३५ साधक निर्वाण मार्ग के प्रवाह में प्रवाहित होने लगता है तब वह स्रोतापन्न कहलाता है । बौद्ध विचारधारा के अनुसार इस अवस्था में साधक निम्न तीन संयोजनों अर्थात् बन्धनों का क्षय कर देता है
१--सत्काय दृष्टि--देहात्म बुद्धि अर्थात् नश्वर शरीर को आत्मा मानकर उसके प्रति ममत्व रखना।
२--विचिकित्सा-सन्देहात्मकता ।
३-शीलव्रत परामर्श-व्रत-उपवास आदि बाह्य कर्मकाण्डों के प्रति रुचि रखना। ___ इस प्रकार साधक दार्शनिक मिथ्यादृष्टि और कर्मकाण्डीय शीलव्रत परामर्श का त्याग कर तथा सब प्रकार की सन्देहात्मक अवस्थाओं को पार कर स्रोतापन्न भूमि में अवस्थित हो जाता है। दार्शनिक एवं कर्मकाण्डीय मिथ्यादष्टिकोणों एवं सन्देहात्मकता की स्थिति के नष्ट हो जाने के कारण इस स्रोतापन्न भूमि से पतन की ओर जाने की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है और साधक निर्वाणाभिमुख हो आध्यात्मिक दिशा में प्रगति करता है। स्रोतापन्न साधक निम्न चार अंगों से युक्त होता है
१-बुद्धानुस्मृति-साधक बुद्ध में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। २-धर्मानुस्मृति-साधक धर्म में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। ३-संघानस्मति-साधक संघ में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। ४-साधक शील और समाधि से युक्त होता है।
अर्थात् साधक के हृदयपटल में बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति अटूट श्रद्धा होती है। इस स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त साधक का आचार
और विचार विशुद्ध होता है और वह अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण लाभ प्राप्त कर लेता है। २. सकृदागामी भूमि
इस भूमि में साधक का मुख्य लक्ष्य आस्रवों ( राग-द्वेष एवं मोह) का क्षय करना होता है, क्योंकि स्रोतापन्न की अवस्था में साधक काम
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१. दीघनिकाय, पृ० ५७-५८ ( उद्धृत-बौद्ध दर्शन पं० बलदेव उपाध्याय, .
पृ० २४१) २. दीघनिकाय, पृ० २८८, उद्धृत-वही, पृ० २४१ । ३. उद्धृत-बौद्ध दर्शन, पृ० २४१ ।
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