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१३४ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन श्रावकयान अथवा होनयान सम्प्रदाय जिसका चरम लक्ष्य अर्हत् पद अथवा व्यक्तिगत निर्वाण लाभ करना है , आध्यात्मिक विकास की चार भूमियों को मानता है, जबकि महायान सम्प्रदाय, जिसका चरम लक्ष्य बुद्धत्व को प्राप्त कर लोकमंगल के लिए कार्य करना है, आध्यात्मिक विकास की दस भूमियों को मानता है । अब हम यहाँ पर दोनों सम्प्रदायों के विचारों को देखने का प्रयास करेंगे। (अ) अहंत-पद प्राप्त करने के चार-चरण
प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में भी जैन धर्म के समान संसारी प्राणियों की दो श्रेणियाँ कही गई हैं, १-पृथक्जन या मिथ्यादृष्टि, २-आर्य या सम्यकदृष्टि । प्राणी के आध्यात्मिक अविकास के काल को पथकजन की अवस्था कहा जाता है और विकास के काल को आर्य कहा जाता है। विकास के काल का शुभारम्भ तभी होता है जब प्राणी या साधक सम्यकदृष्टि के द्वारा निर्वाण के मार्ग की ओर उन्मुख हो जाता है । फिर भी यह सत्य है कि सभी पृथक्जन प्राणी एक समान नहीं होते। कुछ पृथक्जन प्राणी ऐसे भी होते हैं कि जिनका आचरण कुछ सम्यक् प्रकार का होता है अर्थात् वे सम्यक्दृष्टि या यथार्थदृष्टि के सन्निकट होते हैं। अतः पृथकूजन भूमि को अन्धपृथक्जन और कल्याणपृथक्जन इन दो भागों में विभक्त किया है। अन्धपृथक्जन मिथ्यात्व की तीव्रता के कारण निर्वाण मार्ग की ओर उन्मुख हो नहीं होता है, परन्तु कल्याणपृथक्जन निर्वाण मार्ग की ओर अभिमुख तो होता है परन्तु उसे अभी प्राप्त नहीं होता है। मज्झिमनिकाय में इस अवस्था या भूमि को धर्मानुसारी या श्रद्धानुसारी भूमि कहा गया है । हीनयान सम्प्रदाय के अनुसार सम्यकदृष्टि से युक्त निर्वाण मार्ग के साधक को अर्हत् पद प्राप्त करने के लिए चार अवस्थाओं या भूमियों को पार करना होता है
१-स्रोतापन्न भूमि २-सकृदागामी भूमि ३--अनागामी भूमि
४--अर्हत् भूमि १. स्रोतापन्न भूमि
'स्रोतापन्न' का शाब्दिक अर्थ है धारा में पड़ने वाला, अर्थात् जब १. मज्झिमनिकाय, प्रथम भाग ६. १. ३. पृ० ४५ २. उद्धृत-बौद्ध दर्शन, पृ० १४० (पं० बलदेव उपाध्याय )
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