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________________ बुद्धत्व की अवधारणा : १३१ कार्य इद्धिविध कहलाते हैं, इसी को इद्धि भी कहते हैं । दिव्यश्रोत्र से उसे एक ऐसी श्रवण शक्ति की प्राप्ति होती है, जिसके सहारे दिव्य तथा मानुषिक समस्त प्रकार के निकट एवं दूरवर्ती शब्दों को सुन लेता है। परचित्तविजाननशक्ति के माध्यम से अन्य मनुष्यों के चित्त को जाना जा सकता है। पुब्बेनिवासानुस्सति के सहारे वह अपने अनेक पूर्व जन्मों का पूर्ण विवरण जान लेता है । इसी प्रकार दिव्य चक्षु से वह विभिन्न सत्त्वों में कर्मानुसार हीन या प्रणीत गति तथा योनि में उत्पन्न होते एवं मृत्यु को प्राप्त होते देखता है । समापत्ति समाधि विषयक आठ प्रकार की उपलब्धियों को अट्ठ-समापत्ति कहते हैं । चित्त का विभिन्न विषयों से हटकर एक विषय पर एकाग्र होना हो समाधि की अवस्था कहलाती है। इसे कुशल चित्त की एकाग्रता या चित्त चैतसिकों का किसी एक आलम्बन पर आधान भी कहा गया है-"कुसल चित्तेकग्गता समाधि । एकारम्मणे चित्तचेतसिकानं समं सम्मा च आधानं ठपनं ति वुत्तं ।"२ पटिसम्भिदामग्ग में इसे एकाग्रता, अविक्षेप, अनिञ्जन सम्यक् एषणा आदि अर्थों में बतलाया गया है । समाधि दो प्रकार की होती है-रूपसमाधि तथा अरूपसमाधि । रूपसमाधि में आलम्बन का विषय रूप होता है। परन्तु अरूपसमाधि में रूपरहित विषय होता है। रूपसमाधि की चार अवस्थायें-प्रथम ध्यान, द्वितीय घ्यान, तृतीय ध्यान तथा चतुर्थ ध्यान होती हैं। प्रथम ध्यान में पाँचों ध्यानांग-वितर्क विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता बने रहते हैं। द्वितीय ध्यान में वितर्क एवं विचार अनुपस्थित हो जाते हैं-केवल तीन ध्यानांग रह जाते हैं। तृतीय ध्यान में प्रीतिध्यानांग भी हट जाता है। केवल सुख एवं एकाग्रता के साथ इस ध्यान की प्राप्ति होती है। चतुर्थ ध्यान में सूख के स्थान पर उपेक्षा आ जाती है तथा उपेक्षा एवं एकाग्रता नामक दो ध्यानांगों से युक्त इस ध्यान की उपलब्धि होती है। रूप-समाधि में इन चारों ध्यानों १. अभिधम्मत्थसङ्गहो १६६-६७, उद्धृत-निदानकथा (डॉ० महेश तिवारी) पृ० २३९ । २. विसुद्धिमग्ग-५७, उद्धृत वही, पृ० २३७ । ३. पटिसम्भिदामग्ग-५५, उद्धृत वही, पृ० २३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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