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११८ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन मानते हैं।' महासांघिक की रूपकाय वस्तुतः महायानिकों के सम्भोगकाय के समान अनन्त और अमर है। महासांघिकों का कहना है कि भगवान् का रूपकाय पूर्व पुण्यों का परिणाम अत्यन्त विशुद्ध, अनन्त प्रभामय और यथेष्ट स्थान पर यथेष्ट रूप धारण करने की सामर्थ्य है। इस प्रकार सर्वास्तिवादियों में जो रूपकाय को अवधारणा है वह महासांघिकों में अत्यन्त विलक्षण बन गई। इसी से आगे चलकर महायान सम्प्रदाय में सम्भोगकाय का विकास हुआ।
बुद्ध का धर्मकाय प्रारम्भ में उनका उपदिष्ट धर्म ही था किन्तु आगे चलकर उसमें शील, समाधि, प्रज्ञा, विमुक्ति-ज्ञान और विमुक्ति-दर्शन इन पाँच स्कन्धों का समावेश किया गया। बुद्ध को धर्मकाय का महायान सम्प्रदाय में धर्म के रूप में पूनः विवेचन हआ और यह धर्मकाय ही आगे चलकर परमार्थ या स्वाभाविककाय मान लिया गया। सद्धर्मपुण्डरीक और स्वर्णप्रभाससूत्र में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनके अनुसार यह मान लिया गया है कि बुद्ध की आयु अपरिमित है और उन्होंने अभी भी परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं किया है अपितु वे नाना रूपों में प्रकट होकर लोकहित के लिए उपदेश करते रहते हैं। बुद्ध का केवल धर्मकाय हो वास्तविक काय है और लोक समक्ष उनका शरीर निर्माणकाय है किन्तु यह निर्माणकाय मानव देह से बिल्कुल भिन्न है उनके शरीर से अर्चा के लिए सरसों भर भी धातु प्राप्त नहीं हो सकती है अतः उनका शरीर पूर्णतया अभौतिक है और उनके संकल्प से निर्मित है। __ मैत्रेयनाथ ने 'अभिसमयालंकारालोक' में चार कायों का विवेचन किया है-प्रथम स्वाभाविक काय को पारमार्थिक बताया है । बुद्ध ने स्वयं के काय को धर्मकाय कहा है। बुद्ध बोधिसत्वों को अपने सम्भोग के द्वारा उपदेश देते हैं तथा श्रावकों को उपदेश देने के लिए वे अपने निर्माणकाय का उपयोग करते हैं। वैसे बाधिसत्वों को समस्त क्रियायें निर्माणकाय के द्वारा हो सम्पन्न होतो हैं । निर्माणकाय को धर्मकाय के हो सदृश माना गया है।
१. अभिधर्मकोश भाग ३, पृ० २७-२८ ; उद्धृत बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास
पृ० ३४९ २. उद्धृत बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० ३५० ३. वही, पृ० ३५१ ४. वही, पृ० ३५२
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