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________________ . बुद्धत्व की अवधारणा : ११९ · महायानसूत्रालंकारमें भी बुद्धकाय की त्रिविध व्याख्या को गयो हैस्वाभाविककाय, साम्भोगिककाय ओर नैर्माणिककाय । स्वाभाविककाय आश्रय परावृत्ति के लक्षण से युक्त होता है। साम्भोगिककाय स्वार्थ और नैर्माणिककाय परार्थ लक्षण से युक्त होते हैं। स्वाभाविककाय सभी बुद्धों में समान होती है। साम्भोगिककाय के द्वारा बुद्ध धर्म का उपदेश देते हैं तथा निर्माणकाय के द्वारा दूसरों की सेवा करते हैं। इन्हीं तीनों कायों से समन्वित होने के कारण तथागत नित्यकाय कहलाते हैं । ७. बुद्धत्व की अवधारणा में अलौकिकता का प्रवेश हीनयान और महायान में बद्धत्व की अवधारणा के उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर यह ज्ञात होता है कि भावान् बुद्ध को उनके समकालीन व्यक्ति एक मरणशील मनुष्य ही मानते थे । यद्यपि उस युग में भी बुद्ध के अनुयायियों ने उन्हें बोधि-सम्पन्न महापुरुष मान लिया था, फिर भी देहिक स्तर पर वे उनके लिए भी सामान्य मानवों से भिन्न नहीं थे। वे उन्हें जन्म, शैशव, जरा-मरण से युक्त एक मनुष्य के रूप में ही देखते थे। उनको दृष्टि में भी बुद्ध एक ऐसे व्यक्ति थे जिसने माँ को कुक्षि से जन्म लेकर शैशव एवं यौवन की स्थितियों का अनुभव करते हुए अन्त में प्रवजित हो अपनी साधना के द्वारा बुद्धत्व को प्राप्त किया, वे ज्ञान और प्रज्ञा के क्षेत्र में अलौकिक होते हुए भी शारीरिक धर्मों की दृष्टि से अन्य मनुष्यों के समान ही माने जाते थे। किन्तु धीरे-धीरे बुद्ध के व्यक्तित्व में अलौकिकता का प्रवेश होता गया। सर्वप्रथम यह माना गया. कि अपने अन्तिम जन्म में उन्हें महापुरुषों के ३२ लक्षणों से युक्त एवं साधना के योग्य एक विशिष्ट शरीर प्राप्त हुआ था। इस प्रकार उन्हें मनुष्यों में भी एक विशिष्ट मनुष्य के रूप में मान्य कर लिया गया था। किन्तु क्रमशः उनके व्यक्तित्व में अन्य अलौकिकताओं को प्रवेश मिलता गया और वे एक सामान्य मानव से बिल्कुल भिन्न एक अलौकिक व्यक्ति माने जाने लगे। ___ दोघनिकाय में "बुद्ध" को एक सर्वश्रेष्ठ मानव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उसमें स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि वे अर्थात् सम्यक् ज्ञान सम्पन्न, विद्या और आचरण से युक्त सद्गति को प्राप्त करने वाले लोकज्ञाता, श्रेष्ठ, मनुष्यों के धर्मनायक, देवता और मनुष्यों के शास्ता १. उद्धृत-बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० ३३३-५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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