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बुद्धत्व की अवधारणा : ११७
चना माना गया। उनका काय बल विपुल माना गया । महासांघिकों ने बुद्ध के रूपकाय को अनन्त और अनाश्रव माना तथा यह भी स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि बुद्ध में अनेक शरीरों के निर्माण की सामर्थ्य होती है।' आगे चलकर यह कहा गया कि लोक में दृश्य उनकी काय वास्तविक न होकर निर्माणकाय है। कालान्तर के ग्रन्थों में बुद्ध के रूपकाय को और उनकी आयु को अनन्त माना गया। इस प्रकार रूपकाय की अवधारणा से ही निर्माणकाय को अवधारणा का विकास हुआ। त्रिकायवाद के सिद्धान्त में धर्मकाय, सम्भोगकाय और निर्माणकाय ऐसे तीन काय माने गये । बुद्ध को रूपकाय ही महायान में दो रूपों में विभाजित हो गईसम्भोगकाय और निर्माणकाय । मात्र यही दो नहीं अपितु रूपकाय के अर्थ
और स्वरूप के सम्बन्ध में भी हीनयान और महायान में एक अन्तर दृष्टिगोचर होता है।
सर्वास्तिवादी बद्ध के शरीर को जरायुज रूप में उत्पन्न तथा अस्थि, मांस आदि से युक्त मानते थे। सर्वास्तिवादियों के अनुसार यद्यपि चरमभविक बोधिसत्व उत्पत्ति वशित्व को प्राप्त होते हैं अतः वे औपपादूक शरीर भो धारण कर सकते हैं जैसे कि देवता और नारद ।२ किन्तु फिर भी वे जरायुज उत्पत्ति को ही पसन्द करते हैं, क्योंकि प्रथम तो उनकी इस जरायुज उत्पत्ति से अन्य मनुष्यों का उत्साह बढ़ता है और वे विश्वास कर सकते हैं कि हम भी बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते हैं। यदि बुद्ध की उत्पत्ति जरायुज न होकर औपपादुक हो तो सामान्य व्यक्ति उन्हें मायावो या देव या पिशाच के रूप में ही देखेंगे और उनके प्रति उनमें श्रद्धा का आविर्भाव नहीं होगा । जरायुज उत्पत्ति का एक दूसरा कारण यह भी है, ताकि उनके निर्वाण के अनन्तर मनुष्य उनको शरीर धातु का अवस्थापन कर सकें एवं पूजा कर सकें। यदि बुद्ध की उत्पत्ति औपपादुक होती तो औपपादुक शक्तियों के समान उनका शरीर भी मृत्यु के पश्चात् निर्विशेष लुप्त हो जाता।
सर्वास्तिवादियों की इस अवधारणा के विपरीत महासांघिक बुद्धशरीर को सर्वथा लोकोत्तर, औपपादुक और अधिष्ठान समृद्धि-सम्पन्न
१. उद्धृत-बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० ३४८ २. अभिधर्मकोश भाग ३, पृ० २७-२८; उद्धृत-बौद्ध धर्म के विकास का
इतिहास , पृ० ३४९-३५०
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