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११६ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
तरह गर्भ में उनका विकास नहीं होता । वे पूर्णेन्द्रिय ही माता के गर्भ में प्रवेश करके दक्षिण कुक्षि से उत्पन्न हो जाते हैं । महायान में उनके शरीर को औपपादुक कहा गया है । वे मात्र लोकानुवर्तन के लिए ही मानव रूप में दिखाई देते हैं । महायान को एक शाखा वैतुल्यकों का तो यहाँ तक कहना है कि तुषित लोक से महामाया के गर्भ में एक निर्माण-काय का अवतरण होता है ।" बुद्ध के जन्म से लेकर उनके बाद का जीवन महायान में लोकोत्तर हो माना गया हैं । महायान को यह मान्यता है कि बुद्ध की साधना तो अपने पूर्व बोधिसत्त्र के जीवनों में ही पूर्ण हो चुकी होती है । यहाँ तो वे मात्र लोकानुवर्तन के लिए ही साधना करते हैं और संसार के प्राणियों की दुःख विमुक्ति के लिए धर्म चक्र का प्रवर्तन करते हैं । " ६. महायान में त्रिकायवाद की अवधारणा का विकास
हीनयान और महायान सम्प्रदाय के प्रारम्भिक ग्रन्थों में हमें बुद्ध के रूपकाय और धर्मकाय — इन दो कायों की चर्चा उपलब्ध होती है । रूपकाय का तात्पर्य प्रारम्भ में, भगवान् बुद्ध के भौतिक शरीर से था; इसी के प्रकार उनका धर्मकाय उनके उपदेशों का सूचक था । क्रमशः बुद्ध रूपकाय अर्थात् भौतिक देह को सामान्य लोगों की भौतिक देह की अपेक्षा विशिष्ट माना जाने लगा सामान्यतया बुद्ध के इस रूपकाय को अनित्य एवं विनाशशील माना गया था, किन्तु धीरे-धीरे उसमें भी अलौकिकताओं का प्रवेश होता गया । यह माना जाने लगा कि यह रूपकाय न केवल महापुरुषों के लक्षणों से युक्त है अपितु उसे एक विशिष्ट प्रकार की संर१. बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० ३५७ ( डॉ० गोविन्दचन्द्र पाण्डेय ) २. वही, पृ० ३५७
३. ( अ ) विसुद्धिमग्गो, सद्धम्मसंगहो तुलनीय दत्त, महायान, पृ० १०१-२ (ब) श्रोणकोटि कर्ण की उक्ति है - " दृष्टोमयोपाध्यायानुभावेन स भगवान् धर्मकायेन, नोतु रूपकायेन " - दिव्यावदान, पृ० ११
(स) स्थविर की उक्ति भी ऐसी ही है - " यदहं वर्षशतपरिनिर्वृते भगवति प्रव्रजितः, तद्धर्मकायो मया तस्य दृष्टाः । त्रैलोक्यनाथस्य काञ्चनाद्रिनिभस्तस्य न दृष्टो रूपकायो मे" - दिव्यावदान, पृ० २२५ उद्धृत - बौद्ध धर्म का इतिहास, पृ० ३४१-३४४
४. 'अलं वक्कलि किं ते पूतिकायेन दिट्ठेन । यो खो वक्कलि धम्मं पस्सति सोमं पसति । यो मं पसति सो धम्मं पस्सति । संयुत्तनिकाय, वक्कलिसुत्त
(२२.८६.९४), पृ० ३४१
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