SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धत्व की अवधारणा : ११५ नियों और सर्वास्तिवादियों से भिन्न है क्योंकि वे दोनों बुद्ध को जरायुज मानते थे। इस मत में वे प्राणी औपपादुक कहे जाते हैं, जिनकी इंद्रियां अविकल और पूर्ण होती हैं । जिनके शरीर शुक्र-शोणित आदि उपादानों से रहित होते हैं, सर्व अंग-प्रत्यंग से पूर्ण होते हैं। देव, नारक और अन्तराभव ऐसे ही औपपादुक प्राणी हैं । महासांघिक मत में बुद्ध को लोकोत्तरता पर बल दिया गया है क्योंकि वे अनाश्रव और अमर है । महासांधिक बुद्ध के रूपकाय को विपाकज नहीं मानते अपितु निर्माणकाय मानते हैं। उनके मत में बुद्ध का रूपकाय अनन्त और अनाश्रव है। बुद्ध के रूप को अनन्तता तीन प्रकार की मानी गई है-आकार, संख्या और हेतु कृत । बुद्ध छोटे-बड़े आकारों को धारण कर सकते हैं। वे यथेष्ट संख्या में शरीर निर्माण कर सकते हैं। इनके अनुसार लोक में दृश्य काय, उनकी वास्तविक काय न होकर निर्माणकाय है। वास्तविक-काय तो अमर और अनन्त है और इस प्रकार बुद्ध की आयु भी अनन्त है। महासांघिक भी बुद्ध की सर्वज्ञता को स्वीकार करते हैं तथा यह मानते हैं कि बुद्ध नित्य समाधिस्थ हैं और उनका चित्त एक ही क्षण में सब कुछ जान सकता है। महासांघिक मत में बुद्ध की रूपकाय पूर्व पुण्यों का परिणाम, अनन्त विशुद्ध, अनन्त प्रभामय तथा आधिष्ठानिक ऋद्धि के द्वारा यथेष्ट स्थान पर रथेष्ट-रूप धारण करने में समर्थ मानी गई है। हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि महासांघिकों को यही रूपकाय महायानियों की सम्भोगकाय बन गयी है। (ग) महायान में बुद्ध महायान के अनुसार बुद्ध अपने पूर्व जीवन में बोधिसत्त्व के रूप में १० पारमिताओं को पूर्ण करने के बाद बुद्धत्व को प्राप्त करते हैं। इन पारमिताओं की साधना में पूर्णता की प्राप्ति एक जन्म में न होकर अनेक सहस्त्र कल्पों में होती है। जातक अट्ठकथा से ज्ञात होता है गौतमबुद्ध ने भी ५५० बार विविध योनियों में जन्म लेकर इन पारमिताओं की साधना की और अन्त में इनमें पूर्णता प्राप्त की। महायान साहित्य में पालि त्रिपिटक को अपेक्षा भी बुद्ध को एक विलक्षण व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसके अनुसार बुद्ध लोकोत्तर व्यक्तित्व से युक्त हैं। वे श्वेत गज के रूप में माता की कुक्षि में प्रवेश करते हैं किन्तु जरायुजों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy