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१०६ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन देश देता है, बहुजन के हित को सर्वोपरि मानता है। इसलिए धम्मपद में कहा गया है
_ 'सुखो बुद्धानमुप्पादो' बुद्धों का उत्पन्न होना सुखकारी है।' बुद्ध ने जीवन एवं जगत् के प्रत्येक पहलू का साक्षात्कार कर मानव कल्याण के लिए उपदेश दिया था । बुद्ध ने सत्य का दर्शन एवं अनुभव किया था, इसीलिये उन्हें 'तथागत' भी कहा जाता है। चार आर्यसत्यों का स्वयं बोध प्राप्त कर दूसरों को उनका बोध कराया, इसलिए 'बुद्ध' कहलाये। ३. बौद्ध धर्म में बुद्ध का स्थान ___ बौद्ध धर्म में बुद्ध को धर्मचक्र का प्रवर्तक तथा धर्मसंघ का शास्ता माना गया है । मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय एवं कथावत्थु में बुद्ध को अनुत्पन्न मार्ग का प्रवर्तक, मार्गद्रष्टा एवं मार्ग को जानने वाला कहा गया है । ___ "भगवा अनुप्पन्नस्स मग्गस्स उप्पादेता, असञातस्स मग्गस्स सञ्चनेता, अनक्खातस्स मग्गस्स अक्खाता, मगन्नू, मगगाविद्, मग्गकोविदो।"
प्रारम्भ में बुद्ध को ज्ञान एवं सदाचरण से समन्वित धर्मोपदेष्टा माना गया, किन्तु क्रमशः उनके साथ दूसरे विशेषण भी जुड़ते गये । अंगुत्तर निकाय में बुद्ध को श्रमण, ब्राह्मण, वेदज्ञ, भिषक्, निर्मल, विमल, ज्ञानी, विमुक्त आदि नामों से पुकारा गया है। बुद्धघोष ने अंगुत्तरनिकाय की
१. धम्मपद १४/१९४, पृ० ३५ । २. 'बुज्झिता सच्चानी ति बुद्धो, बोधेता पजाया ति बुद्धो ।'-खुद्दकनिकाय
भाग ४ (१), महानिदेस १।१६।१९२, पृ० ३९९ विसुद्धिमग्ग, ७/५२ । 'इमेसं सी भिक्खवे चतुन्नं अरियसच्चानं यथाभूतं । अभिसम्बुद्धत्ता तथागतो अरहं सम्मासम्बुद्धो ति वुच्चतीति ।'
–विसुद्धिमग्ग १६/२१ । ३. मज्झिमनिकाय भाग ३ ( ८.१.१ ), पृ० ६८; संयुत्तनिकाय भाग २ __(२२-५८-६१), पृ० २९५; कथावत्थु (३-२२(१).१), पृ० २.७ । ४. "यं समणेन पत्तब्बं ब्राह्मणेन वुसीमता। __ यं वेदगुना पत्तब्ब, भिसक्केन अनुत्तरं ॥"
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