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तीर्थकर को अवधारणा : १०१ के अभाव में यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक् प्रतीत भी हो, तो भो वे सम्यक नहीं कहे जा सके । वह तो सांयोगिक प्रसंग मात्र है। ऐसा साधक दिग्भ्रान्त भी हो सकता है। जिसकी दृष्टि ही दूषित है, वह क्य. सत्व को जानेगा और उसका आचरण करेगा? दूसरी ओर यदि हम सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसका स्थान ज्ञान के पश्चात् हो हागा, क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय उसे ज्ञानके बाद हो स्थान दिया गया है। ग्रन्थकार कहते हैं कि ज्ञान से पदार्थ (तत्त्व) स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे।' व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात् ही श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें जो स्थायित्व होता है वह ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता। ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है उसमें संशय होने को सम्भावना हो सकती है। ऐसी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नहीं वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकतो है। जिन प्रणीत तत्त्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् ही हो सकती है। यद्यपि साधना के लिए, आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है लेकिन वह ज्ञान प्रसूत होनी चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क से तत्त्व का विश्लेषण करें।
अतः वे मानते हैं कि यथार्थ दष्टिपरक अर्थ में सम्यक दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए, जबकि श्रद्धापरक अर्थ में उसे ज्ञान के पश्चात् स्थान देना चाहिए। डॉ. जैन के अनुसार जैनधर्म में श्रद्धा का स्थान ज्ञान के पश्चात ही है। जैनधर्म गीता के समान यह नहीं मानता है कि श्रद्धावान ज्ञान को प्राप्त होता है अपितु वह यह मानता है कि ज्ञान से श्रद्धा होतो है"
यद्यपि जहाँ तक आचरण का प्रश्न है जैनधर्म यह मानता है कि सम्यक् श्रद्धा सम्यक् आचरण के लिए आवश्यक है । १४. तीर्थकर की अवधारणा का दार्शनिक अवदान
जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा प्रस्तुत की गई है, उसके दार्शनिक अवदान का मूल्यांकन निम्नरूप से किया जा सकता है। सर्वप्रथम १. "नाणेण जाणई भावे दंसणेय सद्दहे ।। उत्तराध्ययन, २८/३५ २. जैन, बौद्ध और गीता का साधनामार्ग, पृ० २७ ३. “नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं"-वही २८/२९
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