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१०२ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
तो तीर्थंकर की अवधारणा यह मानकर चलती है कि प्रत्येक भव्य आत्मा में तीर्थंकर बनने की क्षमता उपस्थित है । प्रत्येक जीव जिन पद को प्राप्त कर सकता है । इस अवधारणा का फलित यह है कि इससे व्यक्ति की गरिमा पुष्ट होती है और वह यह मानने लगता है कि वह अनन्तशक्ति अथवा परमात्मशक्ति से युक्त है । इससे उसके जीवन में निराशा दर होकर आस्था का संचार होता है। दूसरे तीर्थंकर बनाया नहीं जाता अपितु बनता है । यह सिद्धान्त पुरुषार्थवाद का पोषण करता है । जैनपरम्परा यह मानती है कि कोई भी व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के बल से हो तो तोर्थंकर पद को प्राप्त करता है। तीर्थंकरत्व एक याचित उपलब्धि नहीं है अपितु स्व- पुरुषार्थं से उपार्जित उपलब्धि है । इस प्रकार तीर्थंकर की अवधारणा दैववाद, भाग्यवाद और कृपा के स्थान पर पुरुषार्थवाद का समर्थन करती है। जैनपरम्परा में महावीर के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में एक कथा आती है । कथा के अनुसार महावीर के साधना करते समय अनार्य जनों के द्वारा अनेक कष्ट दिये जाते हैं । महावीर को दिये जाने वाले इन कष्टों को देखकर, इन्द्र महावार से प्रार्थना करता है कि अपने साधनाकाल में मुझे अपने साथ रखने की अनुमति दीजिये ताकि साधनाकाल के कष्टों को दूर कर सकूँ । उस समय महावीर ने इन्द्र से कहा कि तीर्थंकर स्ववीर्य अर्थात् स्वपुरुषार्थ से ही परमज्ञान और परमसाध्य को प्राप्त करते हैं, किसी की कृपा या सहयोग से नहीं । यही एक ऐसा तथ्य है जो पुरुषार्थवाद और व्यक्ति की गरिमा को पुष्ट करता है ।
अवतारवाद में ईश्वर स्वामी होता है और व्यक्ति उसका दास होता है, जबकि तीर्थंकर की अवधारणा में व्यक्ति स्वयं स्वामी होने का सामर्थ्य रखता है और होता है । दूसरे अवतारवाद में कृपा का तत्व प्रधान होता है । ईश्वरीय करुणा और कृपा ही अवतारवाद के मूलतत्त्व हैं, जबकि तीर्थंकर की अवधारणा में पुरुषार्थ प्रधान होता है । संक्षेप में व्यक्ति की सर्वोपरिता और पुरुषार्थवाद के सिद्धान्त तीर्थंकर की अवधारणा के महत्त्वपूर्ण दार्शनिक अवदान हैं ।
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