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________________ . तीर्थकर की अवधारणा : ९७ समुद्धारक है, अन्य कोई नहीं । पाप से विमुक्ति की शक्ति तीर्थकर के नाम में न होकर उसके निमित्त से भक्त को, जो आत्मविशुद्धि होती है, उसमें है। १२. जैन धर्म में भक्ति का स्थान जैनधर्म में भक्ति का अत्यधिक माहात्म्य है एवं प्रत्येक जैन साधक का यह परम कर्तव्य है कि वह आदर्श पुरुष के रूप में तीर्थंकरों की स्तुति करे । भक्तिमार्ग की नामस्मरण या जपसाधना से जैनों को स्तुति का स्वरूप बहुत हद तक मिलता है। साधक स्तुति अथवा उपासना के द्वारा अपने अहंकार का विनाश कर सद्गुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है। यद्यपि हमें यह बात स्पष्टरूप से जान लेनी चाहिए कि जैन साधना में जिन महापुरुषों की स्तुति की जाती है उनसे किसी प्रकार के लाभ की आशा करना व्यर्थ है, क्योंकि तीर्थंकर किसी को कुछ नहीं दे सकते । वे तो मात्र साधना या उपासना के आदर्श हैं। तीर्थंकर न तो किसी को संसार-सागर से पार करते हैं और न किसी प्रकार की भौतिक उपलब्धि में सहायक ही होते हैं। मात्र स्तुति के माध्यम से साधक को उनके गुणों के प्रति श्रद्धा दृढ़भूत होती है, साधक के समक्ष उनका महान् आदर्श मूर्तरूप में उपस्थित हो जाता है। इस प्रकार साधक तीर्थंकरों के स्मरण से अपने अन्तर में आध्यात्मिक-पूर्णता के भावों की ज्योति प्रज्ज्वलित करता है और विचार करता है कि मेरी आत्मा भी तीर्थंकरों की आत्मा के समान है; मैं भी यदि वैसी ही साधना करूँ तो तीर्थंकर बन सकता हूँ। मुझे अपने पुरुषार्थ से तीर्थंकर बनने का प्रयत्न करना चाहिए । यद्यपि गीता' के कृष्ण की तरह तीर्थंकर कोई उद्घोषणा नहीं करता कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हें सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा। फिर भी आचारांग "आणाये मामगं धम्म" अर्थात् मेरो आज्ञा के पालन में धर्म है यह कहकर उनके आदेशों के अनुपालन का निर्देश अवश्य करता है । सूत्रकृतांग में भी महावीर को भय से रक्षा करने वाला कहा गया है। फिर भी जैन तीर्थंकर प्रत्यक्ष रूप से अपने भक्त को किसी उपलब्धि में सहायक नहीं होते है। १ गीता १८/६६ २. सूत्रकृतांग १/६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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