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________________ ९८ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन - यद्यपि जैन तीर्थंकर धर्म पालन का निर्देश देता है किन्तु गीता के कृष्ण की भाँति अपने उपासक या भक्त को पाप पंक से उबार लेने का आश्वासन नहीं देता है, क्योंकि वह तो निष्क्रिय व्यक्ति है । वह तो स्पष्ट शब्दों में कहता है कि मनुष्य को अपने कृत कर्मों के भोग के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती। प्रत्येक व्यक्ति को अपने शुभाशुभ कर्मों का लेखाजोखा स्वयं ही पूरा करना है। भले ही तीर्थकर नाम जप से पापों का प्रक्षालन होता हो किन्तु तीर्थंकर में ऐसो कोई शक्ति नहीं कि वह अपने भक्त को पीड़ाओं से उबार सके, उसके दुःख कम करके उसको पापों से मुक्ति दिला सके । जैनधर्म का तीर्थंकर, हिन्दूधर्म के अवतार के अर्थ में अपने भक्त का त्राता नहीं है। आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट रूप से यह बात कही थी कि हम तीर्थकर की स्तुति इसलिए नहीं करते कि उसको स्तुति करने या नहीं करने से वह कोई हित या अहित करेगा । वे कहते हैं "न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्त वेरेः । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चेते दुरितांजनेभ्यः ॥१ अर्थात् हे प्रभु ! तेरी प्रशंसा करने से भी कोई लाभ नहीं, क्योंकि तू वीतराग है, अतः स्तुति करने पर प्रसन्न नहीं होगा। तेरी निन्दा करने में भी कोई भय नहीं है, क्योंकि तू तो विवान्त वैर है, अतः निन्दा करने पर नाराज नहीं होगा। फिर भी हम तेरी स्तुति इसलिए करते हैं कि तेरे पुण्य गुणों के स्मरण के द्वारा हमारा चित्त दुर्गुणों से पवित्र हो जाता है। इस तथ्य को और स्पष्ट करते हए श्रीमत् देवचन्द्र ने कहा है-“जिस प्रकार भेड़ों के समूह में पला हुआ सिंह-शावक, सिंह को देखकर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है उसी प्रकार भक्त आत्मा भी प्रभु की भक्ति के द्वारा अपने आत्मस्वरूप को पहचान लेता है । इसका बोध तो स्वयं भक्त को करना है उपास्य तो वहाँ निमित्त मात्र है।" इस प्रकार जैनधर्म में तीर्थङ्कर तो मात्र आदर्श या निमित्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि स्तवन (भक्ति) से व्यक्ति की दर्शन१. स्वयम्भूस्तोत्र २. "अज कुल-गत केशरी लहेरे, निज पद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतमशक्ति संभाल ॥ -अजित जिनस्तवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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