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________________ ९६ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन है, किन्तु मात्र सन्मार्ग के उपदेश के द्वारा, न कि भक्तों के मंगल हेतु दुर्जनों का विनाश करके । तीर्थंकर धर्म संस्थापक होते हुए भी सामाजिक कल्याण के सक्रिय भागीदार नहीं हैं। वे सामाजिक घटनाओं के मात्र मूकदर्शक ही हैं। यद्यपि आचारांग में तीर्थंकरों ने "आणाये मामगं धम्म" कहकर अपनी आज्ञा पालन में ही धर्म की उद्घोषणा की है फिर भी उनका धर्म शासन बलात् किसी पर थोपा नहीं जाता है, आज्ञा पालन ऐच्छिक है। जैनधर्म में तीर्थंकर को सभी पापों का नाश करने वाला भी कहा गया है। एक. गुजराती जैन कवि ने कहा है कि "चाहे पाप का पञ्ज मेरु के आकार के समान ही क्यों न हो, प्रभु के नाम रूपो अग्नि से यह सहज ही विनष्ट हो जाता है।" इस प्रकार जैन धर्म में तीर्थंकर के नाम-स्मरण एवं उपासना से कोटि जन्मों के पापों का प्रक्षालन सम्भव माना गया है। फिर भी जैनतीर्थकर अपनी ओर से ऐसा कोई आश्वासन नहीं देता, कि तुम मेरी भक्ति करो मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा । वह तो स्पष्ट रूप से कहता है कि कृतकों के फल भोग के बिना मुक्ति नहीं होती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने शुभाशुभ कर्मों का लेखा-जोखा स्वयं ही पूरा करना है। चाहे तीर्थंकर के नाम रूपी अग्नि से पापों का प्रक्षालन होता हो, किन्तु तीर्थङ्कर में ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वह अपने भक्त को पीड़ाओं से उबार सके, उसके दुःख कम कर सके, उसको पापों से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार तीर्थंकर अपने भक्त का त्राता नहीं है। वह स्वयं निष्क्रिय होकर भक्त को प्रेरणा देता है कि तू सक्रिय हो, तेरा उत्थान एवं पतन मेरे हाथ में नहीं, तेरे ही हाथ में निहित है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि तीर्थकर लोककल्याण या लोकहित की कामना को लेकर मात्र धर्म प्रवचन करता है ताकि व्यक्ति उन धर्माचरणों पर चलकर अपने चरित्र का निर्माण करे। क्योंकि मानव का नैतिक चरित्र ही उसका १. पाप पराल को पुञ्ज वण्यो, मानो मेरु आकारो । ते तुम नाम हुताशन तेसी सहज ही प्रजलत सारो॥ २. "कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि"। -उत्तराध्ययन, ४।३ । ३. “पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ?" -आचारांग १।३।३। "पुसि ! अत्ताणमेव अभि णिगिज्झ, एवं दुक्खा पसुच्चसि । -वही, १।३।३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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