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- तीर्थंकर की अवधारणा : ९५ म्पराओं में अनेक सुधार किए जैसे उन्होंने मुनि को नग्नता पर बल दिया, दुराचरण के परिशोधन के लिए प्रातःकालोन और सायंकालोन प्रतिक्रमण की व्यवस्था की। उन्होंने कहा चाहे अपराध हुआ हो या न हुआ हो प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल अपने दोषों को समीक्षा तो करनी चाहिए। इसी प्रकार औद्देशिक आहार का निषेध, चातुर्मासिक व्यवस्था और नवकल्प विहार आदि ऐसे प्रश्न थे, जिन्हें महावीर की परम्परा में आवश्यक रूप से स्वीकार किया गया था। इस प्रकार महावीर ने पार्श्वनाथ की ही परम्परा को संशोधित किया था। महावीर के उपदेशों की विशिष्टता यही है कि उन्होंने ज्ञानवाद की अपेक्षा भी आचार-शुद्धि पर अधिक बल दिया और किसी नये धर्म या सम्प्रदाय की स्थापना के स्थान पर पूर्व प्रचलित निम्रन्थ परम्परा को ही देश और काल के अनुसार संशोधनों के साथ स्वीकार कर लिया। महावीर के उपदेशों में रत्नत्रय की साधना में पंचमहाव्रतों का पालन, प्रतिक्रमण, परिग्रह का सर्वथा त्याग, कठोर तप साधना आदि कुछ ऐसी बातें जो निग्रन्थ परम्परा में महावीर के योगदान को सूचित करती हैं। इस प्रकार महावीर पाव की निन्थ परम्परा में देश और काल के अनुसार नवीन संशोधन करने वाले कहे जा सकते हैं। वे किसी नवीन धर्म के संस्थापक नहीं अपितु पूर्व प्रचलित निग्रन्थ परम्परा के संशोधक या सुधारक हैं। ११. तीर्थकर और लोक कल्याण
जैन धर्म में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, लोकहितकारी, लोकप्रदीप, अभयदाता आदि विशेषण प्रयुक्त हुए हैं ।
जैनाचार्यों ने स्पष्टरूप से यह स्वीकार किया है कि समय-समय पर धर्म चक्र का प्रवर्तन करने हेत तीर्थंकरों का जन्म होता रहता है। सूत्रकृतांग टीका में कहा गया है कि तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, पूजा एवं सत्कार के लिए नहीं । जैनधर्म में यद्यपि तीर्थंकर को लोकहित करने वाला बताया गया है, फिर भी उनका उद्देश्य सज्जनों का संरक्षण एवं दुष्टों का विनाश नहीं है। क्योंकि यदि वे दुष्टों का विनाश करते हैं तो उनके द्वारा प्रदर्शित अहिंसा का चरमादर्श खण्डित होता है, साथ ही सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों का विनाश के प्रयत्न निवृत्तिमार्गी साधनापद्धति के अनुकूल नहीं है। लोक परित्राण अथवा लोककल्याण तीर्थंकरों के जीवन का लक्ष्य अवश्य रहा १. सूत्रकृतांग टीका १।६।४ ।
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