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९४ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
१७ – सक्क, १८ – सरक्ख, १९ - सुतिवादी, २० - सेयवड़, २१ - सेयभिक्खू, २२ - शाक्यमत, २३ - हदुसरख ।
बौद्ध सम्प्रदाय में बुद्ध के समकालीन निम्न छह श्रमण सम्प्रदायों एवं उनके प्रतिपादक आचार्यों का उल्लेख है । "
१. अक्रियावाद -- पूरणकाश्यप २. नियतिवाद - मक्खलिगोशालक ३. उच्छेदवाद -- अजित केशकंबलि
४. अन्योन्यवाद --- प्रकुधकात्यायन ५. चातुर्यामसंवरवाद - - निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र ६. विक्षेपवाद - संजय बेलट्ठिपुत्र
ala साहित्य में अंकित उपरोक्त ६ आचार्यों को तीर्थंकर वहा गया है । इनकी एक निगण्ठनाटपुत्त स्वयं महावीर ही हैं । २ महावीर के उपदेश और उनका वैशिष्ट्य
जैनों के अनुसार तीर्थंकर महावीर ने किसी नये दर्शन या धर्म की स्थापना नहीं की, अपितु पार्श्वनाथ की निर्ग्रन्थ परम्परा में प्रचलित दार्शनिक मान्यताओं और आचार सम्बन्धी व्यवस्थाओं को किञ्चित् संशोधित कर प्रचारित किया। विद्वानों को यह मान्यता है कि महावीर की परम्परा में धर्म और दर्शन सम्बन्धी विचार जहाँ पार्श्वनाथ की परम्परा से गृहीत हुए, वहीं आचार और साधना विधि को मुख्यतया आजीवक परम्परा से गृहीत किया गया । जैन ग्रन्थों से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि महावीर ने पार्श्वनाथ की आचार परम्परा में कई सशोधन किए थे । सर्वप्रथम उन्होंने पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य को जोड़कर पंच महाव्रतों या पंचयाम धर्म का प्रतिपादन किया । पार्श्वनाथ की परम्परा में स्त्री को परिग्रह मानकर परिग्रह के त्याग में ही स्त्री का त्याग भी समाहित मान लिया जाता था । किन्तु आगे चलकर पार्श्वनाथ को परम्परा के श्रमणों ने उसकी गलत ढंग से व्याख्या करना शुरू किया और कहा कि परिग्रह के त्याग में स्त्री का त्याग तो हो जाता है किन्तु बिना विवाह के बन्धन में बधे स्त्री का भोग तो किया जा सकता है और उसमें कोई दोष नहीं है । अतः महावीर ने स्त्री के भोग के निषेध के लिए ब्रह्मचर्य की स्वतन्त्र व्यवस्था की । महावीर ने पार्श्व की पर
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१. दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त ।
२. वही ( हिन्दी अनुवाद), पृ० २१ का सार ।
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