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________________ तीर्थंकर की अवधारणा : ९३ १- क्रियावाद, २ - अक्रियावाद, ३ - विनयवाद, ४ – अज्ञानवाद | क्रियावाद - क्रियावादियों का कहना है कि आत्मा पाप-पुण्य आदि काकर्ता है। अक्रियावाद - सूत्रकृतांग में अनात्मवाद, आत्मा के अकर्तृत्ववाद, मायावाद, और नियतवाद को अक्रियावाद कहा गया है ।' विनयवाद - विनयवादी बिना भेदभाव के सबके साथ विनयपूर्वक व्यवहार करता है अर्थात् सबका विनय करना ही उनका सिद्धान्त है । अज्ञानवाद - अज्ञानवादियों का कहना है कि पूर्ण ज्ञान किसी को होता नहीं है और अपूर्ण ज्ञान हो भिन्न मतों की जननी है अर्थात् ज्ञानोपार्जन व्यर्थ है और अज्ञान में ही जगत् का कल्याण है । सूतकृतांग के अनुसार अज्ञानवादी तर्क करने में कुशल होने पर भी असंबद्ध-भाषी हैं । क्योंकि वे स्वयं सन्देह से परे नहीं हो सके हैं । 3 1 जैन आगम ग्रन्थ उत्तराध्ययन में कहा गया है कि क्रियावाद ही सच्चा पुरुषार्थवाद है, वही धीर पुरुष है जो क्रियावाद में विश्वास रखता है और अक्रियावाद का वर्णन करता है । जैन दर्शन को सम्यक् क्रियावादी इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह एकान्त दृष्टि नहीं रखता है । आत्मा आदि तत्त्वों में विश्वास करने वाला ही क्रियावाद (अस्तित्ववाद ) का निरूपण कर सकता है । ४ आचारांग में भी महावीर के समकालीन चार वादों का उल्लेख भिन्न प्रकार से उपलब्ध है— 'आयावादी, लोयावादी, कम्मावादी और किरियादादी । " निशोथचूर्णि में महावीर के युग के निम्न दर्शन एवं दार्शनिकों का उल्लेख है - १ - आजीवक, २ – ईसरमत, ३ – उलूग, ४ – कपिलमत, ५ –कविल, ६ - कावाल, ७ – कावालिय, ८ – चरग, ९ - तच्चन्निय, १० - परिव्वायग, ११ – पंडुरंग, १२ – बोड़ित १३ – भिच्छुग, १४ – भिक्खू, १६ - वेद, १. सूत्रकृतांग १।१२।४-८ । २ . वही, १।१२।२ । ३. उत्तराध्ययन १८।३३ । ४. सूत्रकृतांग १।१०।१७ । ५. आचारांग सटीक श्रु० १, अ० १, उद्दे० १, पत्र २० । ६. निशीथसूत्र सभाष्य, चूर्णि भाग १, पृ० १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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